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बुद्धि-विलास देवी पद्मावति' कौं अराधि, विनती करि संध्या समै साधि । दीन्हौं उगाय नभ माझि चंद, प्रगटयौ पुर मैं जस अति अमंद ॥६०६॥ वा दिनु मिलि भाषी अहो साहि, द्वादस कोसनि परकास याहि । तव सांड दौड़ाये अनेक, सुनि मुनि दिय वांधि सु जाल ऐक ॥६०७॥ वे दौड़े कोस वहौत राति, वारह ही मैं ऊग्यो प्रभाति । या विधि लषि साहि मुनिदं पासि, पाये नमि कोन्ही अरज दासि ॥६०८॥ यह कारण अव कहिये मुनीस, मुनि कही वाद जानहु महीस । ताहू समये वादीनु प्राय, मंत्रनि ते कमडल मद भराय ॥६०६॥ दै कही अहो पतिसाहि ऐहु, कमडल मद भरयो विना संदेहु । मुनि लषि वामैं किय पुष्प अनि, दोन्ही उघाड़ि कमडल महानि ॥६१०॥ अति प्रस्न' भयो पेरोजसाहि, मुषः मुनि पनि धनि कही चाहि । यह कथा सुनी सव राजलोक, कीन्हीं निदान सव ही सु थोक ॥६११॥ दरसन विनि भोजन हम करें न, या विधि भाषे वेगमनु वैन ।
६०६:१ पदमावति । ६०७ : १ सांडे।
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