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बुद्धि-विलास
वाजे वजाय नौवति निसांन, विधि भली मिले मुनि सौं सुजांन ॥५६६॥ मुनि नगन पयादे चलन लाग, सव करी धरज मिलि हे सभाग । चढि लेहु' पालिकी मुनि महांन, यामैं हमरो प्रति
वढे मांन ॥ ६०० ॥
कहि मुनि हठतैं चढि अहो साहु, या विधि को तुम कीज्यो निवाह । चढि चले पालिकी' साथि सर्व,
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जैनी फुनि पुरजन त्यागि गर्व ॥ ६०१ ॥ श्रावत पुर मैं मनिधरि विषाद, राघो चेतन प्रति किय ववाद । पालिकी बंद करि दो लवार, दोन्ही चलाय मुनि विन कहार ॥ ६०२ ॥ इन श्रादि वाद कीन्हें श्रनेक, मुनि जीति सर्व राषी सु टेक । इक दिनि राघो चेतन सु चाहि, नर पठ्यो वुझन मुनिनु पाहि ॥ ६०३ ॥ मावस दिनि मुनि सिंह ठान देषि, सिध्यनु तें बूझी तिथि विसेषि । सिष्यनु मिलि पूरन्नया कहीस, यह अरज दिलीपति पैं दईस ॥ ६०४॥ है आजु श्रमावस अहो वुनु पून्यौं झूठी कही पतिसाहि षिनाई। वृभि तिथ्थि',
साहि,
काहि ।
मुनि भाषी पुन्यौं श्रजि सत्ति ॥ ६०५ ॥
६०० : १A चढ़ि वेहु । ६०१ : १ पालकी ।
६०५ : १ तित्थि ।
†A popular Jharasahi word To call for-eg. "वीदरणी ने पीर खिनाई" ।
२ फिरि ।
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