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बुद्धि-विलास भये वड्ड पम जे जति राव।
भयो सु भलो जस पुन्य प्रभाव ॥५८१॥ पुनः अन्योक्त' कुंदकुंद अमनांय मैं, भट्टारक जिरणचंद । दोहा : कछुयक तिनहू को सुजस, सुनिऐ भवि गुण वृंद ॥५८२॥ चौपई : यनपे' सवै महाजन आय, गढ चीतोड सु गये लिवाय।
जहां धर्म धर फुनि बुधिवंत, सांगो रांणौं राज करत ॥५८३॥ तहां चौधरी हौ जिरणदास, सांगो तेजो द्वै सुत जास । साह गोत फुनि वौह' धनवान, तिन को राषत हे सव मांन ॥५८४॥ सांग इक दिन विनती करी, करहुँ प्रतिष्ठा मुनि गुन-भरी। मुनि प्राग्या माफिक धन लाय, सव सामिग्री' दई मगाय ॥५८५॥ तव अति हरष मांनि मुनिराज, करने लगे प्रतिष्ठा काज । दिवस कितेक करत जव भये, मुनि तौ तन तजि स्वर्गनि गये ॥५८६॥ तिनकै सिष्य पाट के जोग्य, हुतो न कोई महा मनोग्य ।
आयो हुतो प्रतिष्ठा जांनि, इक सुरजन पांड्यो' गुनषांनि ॥५८७॥ ताक संगि तिया हू हुती, गुन लांवन्य' करि अति सोभती।
तिनतें सवै महाजन प्राय, विनती करी होहु मुनिराय ॥५८८॥ दोहा : ईंह स्वरजन श्रावक तने, हुतौ देवि को इष्ट ।
तात याकौं मानते, पंडितजन हूं सिष्ट ॥५८६॥ चौपई : सव मिलि ताहि भटारक करयो, प्रभाचंद्र नाम यह धरयो ।
अघ-तम-हरन उयो मनु सूर, वढ्यौ प्रताप सवै भरपूर ॥५६०॥ तिया हुती सिंह अजिकाकरी, 'करी प्रतिष्ठा तिनु गुन भरी।
प्रभाचंद्र मुनि कहीं प्रकार, काहू दिसि कौं कियो विहार ॥५६१॥ छद पद्धरी : दिल्ली के पति पेरोजसाहि,
चांदा गूजर परधान ताहि ।
५८२ : १ अन्योक्ति। ५८३ : १ इन। २चीतौड। ५८४ : १ बहु । ५८५ : १ सामग्री। ५८७ : १ सुरजन पांडे । ५८८ : १. लांवनि । ५६१ : १ 'सोभित धर्म ध्यान गुन भरी।'
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