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बुद्धि-विलास
[ ७३ पहलै दरसन करन तनौं झगरो परचो,
आपसमांझिदुहुन ही कै अति रिस भरयौ ॥५७४॥ वैतौ कहै हमारो ही मत आदि है,
दूजे कहै अनादी हम वै' वादि हैं। तव प्रकास ते भई देववांनी यही,
झगरत काहे प्रादि दिगंबर है सही ॥५७५॥ पहिले' वंदन करी नेम जिनचंद की,
जवतें प्रांमनाय ठहरी मुनि कुंद की। तवतै रचे कितेक ग्रंथ भवि तारने,
विसंघीन को मत पंडन के कारनैं ॥५७६ दोहा : इनहीं की अमनाय मैं, भये और मुनिराय ।
नांमी तिनकी अलप-सी, कीरति कहौ वनाय ॥५७७ छद मोतोदाम : धरा ध्रमचद' वड़ौ विड़दाल ।
थप्पो पट वारह-सै-अठताल ॥ तिके रणथंभ प्रतिष्टहि काजि । बुलाय लये मुनि धर्म-जिहाज ॥५७८॥ हुते गुर दक्षिरण देस विसाल। पुन्या धरमैं सुष सौ गुनपाल ॥ दयो तिनु कागद प्रावन काज । सिताव पधारहु हे मुनिराज ॥५७६॥ महरत वांचि दियो यह जाव । गिणे मति ढील चलैं'व सिताव ॥ हुवो रवि अस्त भई जव राति । गये रणथंभ मुनी परभाति ॥५८०॥ मिले तँह राव हमीर निरिंद' । मही धनि धनि हुवो सु मुनिंद ॥
५७५ : १ वह। ५७६ : १ पहले। ५७८ : १Aध्रमचद । ५८१:१नरिंद।
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