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सोरठा
सोरठा :
दोहा :
बुद्धि-विलास
[७१ असे वात कितेक, कहि कहि माथुर श्रावकनि । पकराई अति टेक, संघ निपछ परगट कियो ॥५५४॥
॥ इती संघ उतपति 'संपूर्ण ॥ कुंदकुंद मुनिराज, श्रीमंदिर२ जिनके वचन । सुनि हुव धर्म-जिहाज, अधिक समोघे मुनिनु कौं ॥५५५॥ चलते वहुत कुमार्ग, जो ए मुनि न समोधते । तव ही तें सुभ मार्ग, गहि केते लागे चलन ॥५५६॥
अथ कुंदकुंदाचार्य-वर्नन संवत गुणचासा तण, कुंदकुंद मुनिराय । भये भटारक अवनि पैं, तिनकी है अमनाय ॥५५७॥ इनके कारण पाय के, नाम भये जिम पांच । सुने सु अव विधिवत कहे, भविजन मांनौ' सांच ॥५५८॥ पदमनंदि मुनिवर हुतौ, पैहलै तौ निज नाम । मुनिस्वर२ के परसंग तैं, लहे नाम अभिराम ॥५५६॥ देव मिल्यौ यक प्रायकै, करी वीनती येहु । कहि ऐसो अवहूं करूं, आग्या मोकौं देहु ॥५६०॥ तव' मुनिवर असे कही, विदिह क्षेत्र ले जाय । श्रीमंदिर२ स्वांमी तरणौं, दरसरण मोहि कराय ॥५६१॥ तव स्वरधारि विमान मुनि, चालयो मद्धि प्रकास । राह मांहि पीछी गिरी, ठीक पड़यो नहि तास ॥५६२॥ मुनि वोले पोंछी विनां, हम नहि मग चालंत । देव विचारी सो करूं, जिहि विधि चाले संत ॥५६३॥ गृधिपछिछ' के परन' की, पोंछी दई वनाय । गृधपछाचारिज यहै, तव ते नाम कहाय ॥५६४॥
५५५ : १ 'संपूर्ण' not in AI २ सीमंधर । ५५८ : १ मांन। ५५६ : १ पहलें। २ फुनि सुर । ५६१ : १ जब। २ सीमंधर । ५६४ : १ गृद्ध। २ परनि ।
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