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बुद्धि-विलास फुनि वह बड़े मुनिनु मैं गयो, सव विरतांत आपनौं कहयो । मुनिनु कही फिरि दीक्ष्या लेहु, करि छेदोपसथापन ऐहु ॥५४३॥ वाने विद्या को मद ठांनि, दीक्ष्या फिरि नहि लीनी जांनि।। नए साख तिन लये बनाय, प्रतिमा काठ-तरणी वरणवाय ॥५४४॥ भाषी पूजौ सव मिलि याहि, वहु मिलि पूजन लागे ताहि । सुरही गाय पूंछ के वाल, तिनको पीछी रची विसाल ॥५४५॥ पूजा पाठ नए वरणवाये, प्रागै पीछे दळ चढाए । मुनि-तिय कौं दीक्ष्या दे भाषी, देसवृत करिकै अभिलाषी ॥५४६॥ चर्या वीर करो' सहु कोय, असे बहकाये बहु लोय । प्राछत' कहे और के और, इन दै प्रादि कुवुधि के जोर ॥५४७॥ करि कितेक वातै विपरीति, मूरिष मत प्रांने करि प्रीति । असे नंदिसंघ मैं चाहो, काष्ट संघ उपज्यौ विधि याही ॥५४८॥ जब वाको गुर हौ मुनि महा, प्राय कही यह कीन्हीं कहा। तव वन कितियक मेटी चाल, कितियक चली जात हैं हाल ॥५४६॥
दोहा :
तवही ते कहने लगे, मूलसंघ तौ वाहि।। कहै नवीन प्रवीन जन, संघ कासटा' याहि ॥५५०॥
दोहा :
अथ निपिछछ-संघ-उतपति-वर्नन संवत नौसे ज्याणवै, संघ निपिछ्छ उठांन । मुथरा नगरी मैं हुवो, सो विधि सुनहु सुजांन ॥५५१॥
चौपई : मुनि यक रांमसेन वरनयो, समकित प्रक्रति मिथ्याती भयो ।
गुरु अर प्रतिमां जिन-वर तरणी, तिन मैं विगि निकासी घणी ॥५५२॥ यह प्रतिमां मेरी है भाई', सो ही पूजौंगो मन लाई । यह गुर मेरो ताही मानौं, और मुनिनु कौं नाहि पिछांनौ ॥५५३॥
५४७ : १ करहु । २ प्राछित । ५४६ : १Amissing। २ उन । ५५० : १ काष्टा। ५५३ : १ भई।
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