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________________ वर्ष] श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [३७ जैन बोर्डिंग हाउसको शायद दो-ढाई हजारका दान किया। महिला विद्यालयवालोंने, वहां पर मेरे हाथसे 'कलाभवन' का खातमुहूर्त कराया, जिसमें ५०० रूपये दिये। इस प्रकार और भी कितनी ही फुटकर रकमें उन्होंने यथायोग्य स्थानों में दानके रूपमें दी। सिंघीजीका दान करनेका और खर्च करनेका दिल बहुत बड़ा था, पर वे सदा अपनी प्रसिद्धिसे प्रायः दूर रहते थे। किसीको जो कुछ देते थे उसका जिक्र प्रायः वे किसीसे नहीं करते थे। कोई खास प्रसङ्ग आ जाने पर ही उस बातका उल्लेख हो जाता था। .. उस मामले में वहां पर, और भी कोई दो-चार बडे कहलानेवाले सेठ आते जाते रहते थे और उनमेंसे एक तो अपने आपको शान्तिविजयजी महाराजके वैसे ही भक्त मानते-मनाते थे। रसोडाका जो भारी खर्च सिंघीजीने वहां उठाया उसमें वे सेठ भी बराबर अपने नोकरोंके साथ खानापीना करते थे और सिंघीजीसे शुरू में आग्रह भी करते थे कि- 'आपको इस रसोडेके खर्चे हमको भी आधा हिस्सा लेने देना होगा' इत्यादि । सेठजीने सोचा होगा कोई दो सौ चार सौ रूपये खर्च आगे सो हम भी उसमें नाम कमा लेंगे। पर जब देखा कि खर्चेकी तादाद तो बहुत बड़ी हो गई हैदो सौ चार सौकी जगह कई हजारने ले ली है। तब वे फिर कभी भूल कर भी इस बातको न निकालते थे और सिंधीजीको आतिथ्यका पुण्य बराबर देते रहते थे। उदयपुरसे चलते समय सिंघीजीने इस बातका यों ही मजाकमें मुझसे जिक्र कर दिया था। उदयपुरसे चित्तोडको प्रस्थान ज्यों ही कोर्टका मामला खत्म हुआ, हम सब वहाँसे उसी दिन रवाना होनेको तैयार हुए । पर उदयपुरके जैनसमाजने कमिशनके मेंबरों एवं बाहरसे आये हुए वकीलों इत्यादिके साथ सिंघीजी आदिको एक चायपार्टी दी जिसमें श्रीमुंशीजी, श्रीमोतीलालजी आदि सब सम्मीलित हुए। दूसरे ही दिन हम वहांसे सब साथमें रवाना हुए। रातभर चित्तोडके स्टेशन पर ठहर कर, दूसरे दिन सवेरे चाय-दूध ले कर मैं, श्रीमुंशीजी और सिंघीजी तीनों जन इके कर चित्तोडका किला देखने गये। मैंने और सिंधीजीने तो पहले भी उस किलेको देखा था पर श्रीमुंशीजी साथमें थे इसलिये फिरसे देखने में और अधिक आनन्द आया। राणा कुंभाका कीर्तिस्तंभ देख कर हम लोगोंने परमार नृपति भोजदेवका वह शिवमन्दिर विशेष ध्यानसे देखा जिसमें भणहिलपुरके चौलुक्य नृपति कुमारपालका वि० सं० १२०७ का लेख खुदा हुआ है। पर उस मन्दिरके गर्भागारमें लकडी और बांस भरे पडे थे और कचरेका ढेर लगा हुआ था जिसको देख कर हमको बडी ग्लानि हुई।आगे चलते हुए चामुंडा-कालीका मन्दिर देख कर पद्मिनीके महल वगैरह देखे और फिर वहांसे जैन कीर्तिस्तंभको देख कर तथा ध्वंसावशिष्ट कुछ पुराने जैन मन्दिरोंको देख कर हम यथासमय स्थान पर पहुंचे। नगरी नामक प्राचीन स्थानका निरीक्षण मंशीजी तो दोपहरकी गाडीसे बंबईके लिये रवाना हो गये पर मैं और सिंधीजी चित्तोडके पास ६-७ मीलके फासले पर 'नगरी' नामका एक पुराना स्थान है उसे देखने गये। मैंने ही सिंघीजीसे उस स्थान का परिचय दिया था और बताया था कि यह 'नगरी' वही इतिहास प्रसिद्ध 'माध्यमिका नगरी' है जिसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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