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________________ ३६] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [ तृतीय शेरके नजदीक पहुंची कि शेरने लंबी छलांग मारी और वह हमारी मोटरके ऊपर होकर पीछे की ओर कूद पडा। इतनेमें तो मोटर पूरी तेजीके साथ आगे बढ़ गई और शेर झाड़ीमें घुस गया। हम अपनी खुशनशीबी मनाते हुए और ड्राइवरकी होशियारीकी प्रशंसा करते हुए मकान पर पहुंचे। सिंधीजीने ड्राइवरको ऊपर बुलाकर उसे मिठाई वगैरह खानेको दी और फिर २१ रूपये बक्षीसके दिये । __वहां उदयपुरमें इस तरह केशरियाजीके मामलेमें उलझे रहने पर भी, उनका जो निजी शोख प्राचीन शिक्के, चित्र, शिल्पके नमूने- इत्यादिकका संग्रह करनेका था वह चालू था। नाथद्वारे आदिसे कई लोग पुराने चित्र आदि ले आते थे और यदि उपयोगी मालूम दिया तो सिंघीजी उनको योग्य मूल्य दे कर तुरन्त खरीद लेते थे। - मैं एक दिन घूमनेके लिये अकेला यों ही शहरसे ४-५ मीलके फासले पर बहुत ही एकान्त प्रदेश में चला गया। वहां जंगलमें एक पहाडीकी खीणमें एक छोटासा शिवालय देखा जो बिल्कुल टूटा हुआ था पर उसके मण्डपका एक तोरण अखंड रूपसे खड़ा था। छोटासा नाजूक तोरण था जो सिर्फ ४ ही अखण्ड शिलाखण्डोंसे बनाया गया था पर उसका शिल्पकाम बहुत ही सुन्दर, आकर्षक और प्रमाणोपेत था। मैंने सिंघीजीसे भा कर उसका जिक्र किया तो वे उसे देखनेके लिये बडे उत्सुक हुए। पर मैंने कहा वहां जानेका मोटर आदिका कोई रास्ता नहीं मालूम देता और ४-५ मील पैदल जाना और फिर माना आपके लिये शक्य नहीं मालूम देता । तब वे बोले 'क्या आप हमको इतने कमजोर और अपंग समझते हैं ? देखिये हमारी परीक्षा कर लीजिये हम चल सकते हैं या नहीं।' दूसरे ही दिन सवेरे नास्ता-पाणी कर हम दोनों उस जगहको देखने चल पडे। पथरीले और ऊंचेनीचे पहाडी भागको पार करते हुए हम वहां पहुंचे। सिंघीजीने मन्दिरके उस भग्नावशेष तोरणको बडे ध्यानसे देखा और वे बडे प्रसन्न हुए। बोले-'हमारा चलना बिल्कुल सार्थक हो गया। इस तोरणको देख कर तो मन होता है कि यदि हम इसे उठा कर कलकत्ता ले जा सकें तो उसके लिये हजार-दो हजार रूपया भी खर्चनेको हम तैयार हो जाय ।' मैंने कहा- 'यह तो इस मेवाड राज्यमें शक्य नहीं है; और ऐसे तो इस दरिन्द्र मेवाडमें हजारों मन्दिर जहां वहां टूटे फूटे पड़े हैं जिनकी तरफ कभी कोई देखनेवाला भी नहीं है और जिनके उत्कृष्ट शिल्पका ग्रामीणोंके लडके पत्थर मार मार कर प्रतिदिन नाश करते रहते हैं।' इस तरहकी बातेंचीतें करते कोई १२ बजे हम वापस मकान पर पहुंचे और नहा-धो कर भोजन करने साथ बैठे । तब बोले कि 'कहिये हम चलनेकी परीक्षामें पास हुए या नहीं!' मैंने सचमुच ही देखा कि सिंघीजीको उसका कोई वैसा थाक नहीं मालूम दिया और रोजकी तरह अपना काम करते रहे । सिंघीजीकी उदयपुरमें आर्थिक उदारता सिंधीजीने उस तीर्थके मामले में जितना खर्चा वहां पर उठाया था उसका जिक्र तो ऊपर किया ही है। उसके उपरान्त भी संस्थाओं आदिको उन्होंने वहां कितना ही दान दिया था। उदयपुरकी सार्वजनिक शिक्षाविषयक सुप्रसिद्ध संस्था 'विद्या भवन' (डॉ. श्रीमोहनसिंहजी महेता द्वारा स्थापित) को एक हजारका दान दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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