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________________ १४२] भारतीय विद्या [ वर्ष ३ बैठती । आर्षानुसारी गणितज्ञ इसे अन्यथा ही वर्णन करते हैं" । हरिभद्रसूरिको भी इसमें कुछ संदेह हुआ है । ५ अ० ३, सूत्र १५ के भाष्यकी टीका करते हुए सिद्धसेन लिखते हैं, इस अन्तरद्वीपक भाष्यको दुर्विदग्धोंने प्रायः नष्ट कर दिया है जिससे भाष्यपुस्तकों (भाष्येषु) में ९६ अन्तरद्वीप मिलते हैं । पर यह अनार्ष है । वाचकमुख्य सूत्रका उल्लंघन नहीं कर सकते। यह असंभव है । ७- अ० ४, सूत्र ४२ के भाष्यपर सिद्धसेन कहते हैं कि भाष्यकारने सर्वार्थसिद्धमें भी जघन्य आयु बत्तीस सागरोपम बतलाई है, सो न जाने किस अभिप्रायसे, आगममें तो तेतीस सागरोपम है । ८ - अ० ४, सू० २६के भाष्यमें लोकान्तिक देवोंके आठ भेद हैं । परन्तु भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, स्थानांगादिमें नौ बतलाये हैं । ९ - अ० ९, सू० ६ के भाष्य में भिक्षुप्रतिमाओंके जो १२ भेद किये हैं, उनको ठीक न मानकर सिद्धसेन कहते हैं कि यह भाष्यांश परम ऋषियोंके प्रवचनके अनुसार नहीं है किन्तु पागलका प्रलाप है । वाचक तो पूर्ववित् होते हैं, वे ऐसा आर्षविरोधी कैसे लिखते ? आगमको ठीक न समझनेसे जिसे भ्रान्ति हो गई है ऐसे किसीने यह रच दिया है । १ - " एषा च परिहाणिः आचार्योक्ता न मनागपि गणितप्रक्रियया संगच्छते । गणितशास्त्रविदो हि परिहाणिमन्यथा वर्णयन्त्यागमानुसारिणः ।" २ - "गणितज्ञा एवात्र प्रमाणं ।" ३ - सर्वार्थसिद्धि और तिलोय पण्णत्ति आदि दिगम्बर-ग्रन्थोंमें भी ९६ ही अन्तरद्वीप बतलाये हैं । भाष्य में भी ९६का ही पाठ रहा होगा। परन्तु आश्चर्य है कि मुद्रित भाष्यपाठों में ५६ ही अन्तरद्वीप मुद्रित हैं और उक्त भाष्यांशके नीचे ही ९६ अन्तरद्वीपोंकी सूचना देनेवाली सिद्धसेनकी तथा हरिभद्रकी टीका मौजूद है । प्रतिलिपिकारों अथवा मुद्रित करानेवालों का यह अपराध अक्षम्य है । ४ - " एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धैर्येन षण्णवतिरन्तर - द्वीपका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनार्षं चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु षट्पञ्चाशदन्तरद्वीप - काध्ययनात् । नापि च वाचकमुख्याः सूत्रोल्लंघनेनाभिदधत्य सम्भाव्यमानत्वात् ।..." ( हारिभद्रयवृत्ति में भी बिल्कुल यही पाठ है ।) ५ - " भाष्यकारेण तु सर्वार्थसिद्धेऽपि जघन्या द्वात्रिंशत्सागरोपमान्यधीता, तन्न विद्मः केन अभिप्रायेण । आगमस्तावदयं... " ६ - “भाष्यकृता चाष्टविधा इति मुद्रिताः । आगमे तु नवधैवाधीता ।" ७ - " नेदं पारमर्षप्रवचनानुसारि भाष्यं किं तर्हि प्रमत्तगीतमेतत् । वाचको हि पूर्ववित् कथमेवंविधं आर्षविसंवादिनिबध्नीयात् । सूत्रानवबोधादुपजात भ्रान्तिना केनापि रचितमेतत् ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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