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________________ अंक १] उमाखातिका तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय [ १४३ इस तरह और मी अनेक स्थानोंमें वृत्तिकारने आगम-विरोध बतलाया है, जिसका स्थानाभावसे उल्लेख नहीं किया जा सका । इस विरोधसे स्पष्ट समझमें आ जाता है कि भाष्यकारका सम्प्रदाय सिद्धसेन के सम्प्रदाय से भिन्न है और वह यापनीय ही हो सकता है । मूल सूत्रमें भी खटकनेवाली बातें जैसा कि पहले कहा जा चुका है, दिगम्बर सम्प्रदाय तत्त्वार्थ भाष्यको नहीं मानता, सिर्फ सूत्र-पाठको मानता है और वह सूत्रपाठ भी भाष्यमान्य सूत्र - पाठसे कुछ भिन्न है । फिर भी उसमें भी कुछ सूत्र ऐसे हैं जिनपर बारीकी से विचार किया जाय, तो वे दिगम्बर - सम्प्रदाय की दृष्टि से खटकते हैं - १ - अ० १० के 'एकादश जिने' सूत्रका सीधा और सरल अर्थ यह है कि तेरह - चौदहवें गुणस्थान (जिन) में भूख-प्यास आदि ग्यारह परीषह होती हैं परन्तु चूँकि दि० सम्प्रदाय केवलीको कवलाहार या भूख-प्यास नहीं मानता है, इसलिए उसे इस सूत्रकी व्याख्या दो तरह से करनी पड़ी है । एक तो यह कि जिन सर्वज्ञमें क्षुधा आदि ग्यारह परीषह वेदनीयकर्मजन्य हैं लेकिन मोह न होनेके कारण वे भूख आदि वेदनारूप न होनेसे सिर्फ उपचारसे द्रव्य परीषह हैं । दूसरी तरह यह कि उक्त सूत्रमें 'न'का अध्याहार करके यह अर्थ किया जाय कि जिन भगवान में वेदनीय कर्म होनेपर भी तदाश्रित क्षुधा आदि ग्यारह परीषह मोहका अभाव होनेके कारण बाधारूप न होनेसे हैं ही नहीं । परन्तु वास्तव में यह खींचातानी है । सूत्रकार यापनीय हैं, इसीलिए वे केवलीको कवलहार मानते हैं और उनके मतसे 'जिन' के ग्यारह परीषह होना ठीक है । २ - चौथे अध्यायका 'दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ' सूत्र दोनों सूत्रपाठों में एक-सा मिलता है जिसके अनुसार भवनवासियोंके दस, व्यन्तके आठ, ज्योतिष्कोंके पाँच और कल्पवासियोंके बारह भेद बतलाये हैं; परन्तु आगे के 'सौधर्मेशान' आदि सूत्रमें जिसमें कल्पवासियोंके भेद गिनाये हैं, भिन्नता आ गई है । भाष्यमान्यपाठमें जहाँ कल्पोंके नाम १२ हैं, वहाँ दिगम्बर सूत्रपाठ १६ हैं, अर्थात् ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और सतार ये चार नाम १ - इस विषयपर डा० हीरालालजी जैनने जैन सिद्धान्तभास्कर ( भाग १०, अंक २, पृष्ठ ८९-९४)में प्रकाशित 'क्या तत्त्वार्थसूत्रकार और उनके टीकाकारोंका अभिप्राय एक ही है ?" शीर्षक लेखमें विशेष प्रकाश डाला है । २ - यापनीय संघके शाकटायनाचार्यने अपने 'केवलिभुक्ति' नामक प्रकरण में कवलाहाका जोरोंसे समर्थन किया है। देखो, जैनसाहित्य संशोधक भाग २, अंक ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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