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________________ अंक १] उमाखातिका तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय [१४१ पूर्ण सुन्दर मनोहर थे । अर्थात् इस विषयमें भाष्य और वृत्तिकारकी मान्यतामें भेद है । परन्तु यापनीयोंकी विजयोदया टीकामें भाष्यके ही मतका प्रतिपादन किया गया है और यह भी भाष्यकारके यापनीय होनेका सबल प्रमाण है। भाष्यसे श्वेताम्बर सम्प्रदायका विरोध । भाष्यमें अनेक मान्यतायें ऐसी हैं जिनसे श्वेताम्बर सम्प्रदायका विरोध आता है और जिनसे श्वेताम्बर टीकाकार सिद्धसेन सहमत नहीं हैं । वे उन्हें आगमविरोधी मानते हैं। . २- अध्याय २, सूत्र १७के भाष्यमें उपकरण के दो भेद किये हैं, बाह्य और अभ्यन्तर । इसपर सिद्धसेन कहते हैं कि आगममें ये भेद नहीं मिलते । यह आचार्यका ही कहींका सम्प्रदाय है । और वास्तवमें वह यापनीयोंका सम्प्रदाय है। ___ ३ - अध्याय ३, सूत्र ३ के भाष्यमें रत्नप्रभाके नारकीयोंके शरीरकी ऊँचाई ७ धनुष,३ हाथ और ६ अंगुल बतलाई है। सिद्धसेन कहते हैं कि भाष्यकारने यह अतिदेशसे कही है । मैंने तो आगममें कहीं यह प्रतरादि भेदसे नारकीयोंकी अवगाहना नहीं देखी । ४-अ०३, सू० ९ के भाष्यमें जो परिहाणि बतलाई है, उसके विषयमें सिद्धसेन कहते हैं कि यह परिहाणि गणितप्रक्रियाके साथ जरा भी ठीक नहीं १- "द्वीपनामतः पुरुषनामानि, ते तु सर्वाङ्गसुन्दरा दर्शनमनोरमणाः नैकोरुका एव । इत्येवं शेषा अपि वाच्या । - सि० से० वृत्ति। २ -- "अभाषका एकोरुका लांगूलिकविषाणिनः । आदर्शमेषहस्त्यश्वं विद्युदुल्कमुखा अपि॥ हयकर्णगजकर्णाः कर्णप्रावरणास्तथा । इत्येवमादयो ज्ञेया अन्तरद्वीपजा नराः॥ समुद्रद्वीपमध्यस्थाः कन्दमूलफलाशिनः । वेदयंते मनुष्यायुः मृगोपमचेष्टिताः ॥" -भ० आ० पृ० ९३६ ३-ऐसा जान पड़ता है कि यापनीयोंके आगम वर्तमान वल्लभी वाचनाके आगमोंसे भिन्न पहलेकी किसी वाचनाके, संभवतः माथुरी वाचनाके, थे और इसीलिए विजयोदयामें जो उद्धरण हैं वे वर्तमान आगमोंमें ज्योंके त्यों नहीं, यत्किञ्चित् पाठ-भेदको लिये हुए मिलते हैं। उमाखातिका भाष्य उसी पूर्वकी वाचनाके अनुसार होगा और इसीलिए वह कहीं कहीं सिद्धसेनको आगम विरोधी मालूम हुआ है।। ४ - "आगमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद उपकरणस्येत्याचार्यस्यैव कुत्तोऽपि सम्प्रदाय इति"। ५-तिलोयपण्णत्तिमें तत्त्वार्थ-भाष्यके ही समान अवगाहना बतलाई है - सत्त-ति-छ हत्थंगुलाणि कमसो हवंति धम्माए ।-अ० २,११६ ६- “उक्तमिदमतिदेशतो भाष्यकारेणास्ति चैतत् न तु मया क्वचिदागमे दृष्टं प्रतरादिभेदेन नारकाणां शरीरावगाहनमिति ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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