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________________ अंक १] प्रक्षाकर गुप्त और उनका भाज्य [३ संस्कृतके भाष्यकारोंमें- पतंजलि (१५० ई. पू. व्याकरण महाभाष्य), वात्स्यायन (ईसवी तीसरी सदी, न्यायभाष्य), शबर (चौथी सदी, मीमांसाभाष्य), व्यास (पांचवी सदी, योगभाष्य)-के बाद प्रज्ञाकरका नंबर पांचवा और विस्तारमें दूसरा है; मगर गद्य - पद्यमिश्रित शैली, लौकिक न्यायपूर्ण चुभती संस्कृत भाषा लिखनेवालोंमें प्रज्ञाकरका नाम सर्वप्रथम आता है-प्रज्ञाकरके भाष्यका तृतीयांश पद्यबद्ध है। धर्मकीर्तिने अपने दूसरे निबंधोंके आरम्भमें 'विघ्नविनाशार्थ' मंगलाचरण लिखने की आवश्यकता नहीं समझी । प्रमाणवार्तिकमें मंगलश्लोक' मिलता है, मगर वह मूलका है या स्ववृत्तिका यह निश्चित तौरसे नहीं कहा जा सकता। धर्मकीर्ति कुछ अधिक खतंत्र विचारके थे। विज्ञानवादके लिये जैसे उन्होंने बेगार काटी है, और बुद्धके सर्वज्ञत्वको जिस तरह टाल दिया है, उससे भी यही सिद्ध होता है। किन्तु, प्रज्ञाकर अधिक श्रद्धालु थे। उन्होंने इन दोनों विषयोंपर खूब लिखा है; और कितनी ही जगह वह नैयायिक नहीं कट्टर धर्माचार्यके रूपमें सामने आते हैं और अपने ग्रंथके अन्तवाले श्लोकको बेकार कर देते हैं हे वादिनो न खलु सन्ततपक्षपातद्वेषं मनः स्वपरपक्षकृतान्धकारम् । तत्त्वप्रबोधनविधायि मनस्विवृत्तं, मध्यस्थभाव इति तत्र मतिर्विघेया ॥ दिग्नाग और धर्मकीर्ति के प्रति प्रज्ञाकरकी अगाध श्रद्धा थी। दिमागको एक जगह उन्होंने 'सकलन्यायवादिनां न्यायपरमेश्वर (४११३०) कहा और लिखा अन्तर्विन्ध्यनिवासिसान्द्रविततध्वान्तोद्धतध्वंसिपीः अत्युच्चैरुदयाद्रिसन्ततशतप्रेङ्खन्मयूखोत्करः। आचार्यों न विमार्गगः प्रतिहतो नान्यैरपूर्वो रविः, नास्तव्यस्तगभस्तिहस्तविफलप्रारम्भसम्भावितः ॥ (४।१३०) और धर्मकीर्त्तिके बारेमें-- तीर्थ्याः श्रीधर्मकीर्तेर्मतमिदममलं तादृशामेव गम्यम्, यादृग् व्याख्यातुमीशः कथमिति सुचिरं चिन्त्यतामत्र हेतुः । ३ “विधूतकल्पनाजालगम्भीरोदारमूर्तये । नमः समन्तभवाय समन्तस्फुरणत्विषे ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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