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________________ ८०] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [तृतीय नीचे, विक्रमोत्सव समारंभ मनाया जाने वाला था, और उसके साथ डॉ. ताराचंद, डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी, डॉ. सरकार, डॉ. त्रिपाठी, डॉ. शरण आदि भारतीय इतिहासके प्रमुख ज्ञाता विद्वानोंकी एक छोटीसी कॉन्फरेन्स बुलाई गई थी, जिसमें भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रस्तावित 'भारतीय इतिहास के आलेखनकी प्रारंभिक रूपरेखाका ऊहापोह किया जानेवाला था। इसलिये मुझे मुंशीजीके साथ वहां जाना आवश्यक हुभा। उसके बाद, डीसेंबरके अन्तमें बनारसमें ओरिएन्टल कॉन्फरेन्स होनेवाली थी, उसमें भी सम्मीलित होना मुझे बहुत जरूरी था। इसलिये बनारस हो कर फिर कलकत्ता जाना मैंने स्थिर किया और इस विषयका एक पत्र मैंने सिंधीजीको कानपुरसे लिखा। इस पत्रमें मैंने कानपुरमें इतिहासज्ञ विद्वानोंके साथ किये गये विचार-विनिमयका भी कितनाक वृत्तान्त लिखा था । क्यों कि उनको इस विषयमें बहुत अधिक रस रहता था । अत एव मैं उनको अपनी ऐसी प्रवृत्तिका हाल समय समय पर लिखा करता था। परन्तु इस पत्रका उनकी तरफसे कोई उत्तर नहीं मिला; क्यों कि स्वास्थ्यकी खराबीके कारण उनका स्वयं पत्रव्यवहार करना बन्ध हो चुका था। इससे मैंने अनुमान किया कि प्रकृति जरूर कुछ अधिक अस्वस्थ होनी चाहिये। सिंधीजीसे मेरी अन्तिम भेट डीसेम्बरके अन्त में बनारस-हिंदु युनिवर्सिटीमें होने वाली ओरिएन्टल कॉन्फ "रेन्समें सम्मीलित होनेके लिये मैं वहां गया। वहां उस कॉन्फरेन्समें आनेवाले इतिहासज्ञ विद्वानोंके साथ, जिनमें, सर् राधाकृष्णन् , डॉ. मजुमदार, डॉ. आल्टेकर, प्रो. पुणतांबेकर, डॉ. बागची, प्रो. नीलकण्ठ शास्त्री, आदि प्रमुख थेभारतीय इतिहासकी योजना और कार्य-पद्धति आदिका विशेष भावसे ऊहापोह किया गया और हम लोगोंके बीचमें कुछ थोडासा मतभेद था उसका निकाल किया गया। बनारसमें वह कार्य समाप्त होनेपर फिर मैं सिंघीजीको मिलनेकी दृष्टिसे कलकत्ता गया। रास्तेमें डालमियां नगरके प्रतिष्ठापक और भारतके एक प्रमुख प्राणवान् उद्योगाधिपति साहु श्रीशान्तिप्रसादजी जैनके आग्रहसे, एक रात वहां पर उतर गया। विद्याप्रेमी साहुजीने, 'भारतीय विद्या भवन' की प्रवृत्तिका विस्तृत हाल सुन कर अपनी प्रसन्नता और सद्भावना प्रकट की, तथा मेरे निवेदन करने पर, भवनको पोष्ट ग्रेज्युएट स्टडीजके लिये मासिक ५०-५० रूपयेकी ५ स्कॉलर्शिप देनेकी बड़ी उदारता बतलाई । 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला के द्वारा होने वाले ग्रन्थोद्धार कार्यको देखजान कर उसकी उन्होंने प्रशंसा की। उन्होंने भी बनारसमें एक ऐसा ही ज्ञानप्रकाशनका बहुत बडा कार्यालय तथा ग्रन्थालय आदि स्थापित करनेकी योजना तैयार की थी जिसके विषयमें मुझसे बहुत कुछ परामर्श किया।आनन्दकी बात है कि 'भारतीय ज्ञानपीठ' के नामसे स्थापित होकर यह संस्था अब अपना कार्य अच्छी तरह कर रही है। ता. ६ जनवरी, १९४४ के रोज मैं कलकत्ता पहुंचा । श्रीमान् राजेन्द्रसिंहजी तथा श्रीयुत नरेन्द्रसिंहजी दोनों कहीं कार्यवश बहार गये हुए थे। सिंधीजीके कुटुम्बके भात्मीय और विश्वस्त डॉक्टर श्रीरामराव अधिकारी वहीं थे, सो उनसे बाबूजीके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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