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आमुख
प्रस्तुत प्रबन्ध का शीर्षक है "हिन्दी साहित्य को मत्स्य प्रदेश की देन" | निबन्ध का विषय चुना गया था साहित्य की उस अमूल्य निधि को देख कर जो हस्तलिखित पुस्तकों, खोजसूचनाओं अथवा मुद्रित पुस्तकों के रूप में इतस्ततः बिखरी हुई पड़ी है। उस सामग्री के महत्त्व और उपयोगिता पर अधिक कहने की प्रावश्यकता नहीं। अब तक हिंदी साहित्य के जो इतिहास लिखे गए हैं उनमें अधिकांशतया प्रधान लेखकों, उनकी रचनाओं और इस साहित्य के समष्टिगत प्रभाव पर ही प्रकाश डाला गया है। विभिन्न जनपदों में जो साहित्य-सृजन हुमा उसके मूल्यांकन पर जो ध्यान दिया जाना चाहिये था वह नहीं दिया गया। हाँ, इस सम्बन्ध में डॉक्टर सत्येन्द्र का 'ब्रज लोक-साहित्य का अध्ययन' एक अपवाद अवश्य है। परिणाम यह हुआ कि यहां की बहुत सी मूल्यवान सामग्री अभी तक अप्रकाशित पड़ी हुई है। इस प्रसंग में मत्स्य प्रदेश की अपनी एक विशेषता है। इस जनपद का अधिकांश भाग ब्रज भाषा-भाषी है । शेष में शुद्ध ब्रज भाषा का प्राचुर्य न होते हुए भी उसका समुचित प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । फिर सामन्तशाही समय में विभिन्न राज्यों के अन्तर्गत होने के कारण मत्स्य के प्रत्येक भाग में साहित्य को विभिन्न रूप में राज्याश्रय प्राप्त हुआ। राज्याश्रय प्राप्त साहित्य भी अपना स्थान रखता है। राजस्थान की सांस्कृतिक विकास योजना के साथ मत्स्य प्रदेश के इस साहित्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रस्तुत निबन्ध इसी का प्रयास है कि राजस्थान के समष्टिगत साहित्य-योग में मत्स्य की सेवा का मूल्यांकन प्रस्तुत किया जाये।
इस विषय पर अभी तक किसी भी जिज्ञासु ने प्रकाश नहीं डाला। इधर-उधर लिखे गए कुछ लेख नगण्य मात्र ही हैं। प्रतएव, उनका आभार मानते हुए भी यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत प्रबन्ध का विषय, उसकी सामग्री, प्रायः सभी मौलिक है और सामग्री के सभी अंग मूल रूप में लेखक के अध्ययन का विषय रहे हैं। अपने प्रबन्ध से पूर्व प्रकाशित किसी भी सम्मति. को बिना देखे और जांच किए प्रमाणित नहीं मान लिया गया है। मुंशी देवीप्रसाद एवं महेशचन्द्र जोशी ने अलवर और करौली के कुछ कवियों की कविता का संक्षिप्त परिचय, बहुत दिन हुए, लिखा था; परन्तु यह परिचय सामग्री को उपलब्धि के अनुपात में इतना कम है कि अपने ऐतिहासिक महत्त्व के अतिरिक्त उसका दूसरा कोई भी उपयोग नहीं रह जाता। भरतपुर के बैकुंठवासी महाराजा सवाई श्री कृष्णसिंहजी के राज्यकाल में 'भारत वीर' नाम का एक सुन्दर साप्ताहिक निकलता था। इस में कभी-कभी कछ लेख मत्स्य प्रदेश के लेखकों के विषय में निकल जाते थे। कुछ नए लेखकों को भी इससे प्रोत्साहन मिलता था। परन्तु अद्मावधि कोई ऐसा मार्ग नहीं है जिसके द्वारा समस्त साहित्यकारों की रचनाओं का रसास्वादन कराया जा सके। अलवर से निकलने वाले 'तेज प्रताप' और 'अरावली' का भी केवल ऐतिहासिक महत्त्व ही रह गया है।
भरतपुर राज्य में प्रचुर सामग्री वर्तमान थी। परन्तु खोज करने पर पता चला कि उसका अधिकांश भाग पं० मयाशंकर याज्ञिक द्वारा भरतपुर से बाहर गया और उसका
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