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अभी तक कोई विशेष उपयोग नहीं हो पाया। याज्ञिक' जी के निजी संग्रहालय के रूप में यह प्रसिद्ध है। यही हाल उस सामग्री का हुआ जो काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से खोज कार्य की सूची बनाने वालों को दी गई थी। सच तो यह है कि इन दुर्घटनामों के कारण आज के परिवार जिनके पास हस्तलिखित पुस्तकों का भंडार है अब किसी भी खोज करने वाले पर विश्वास नहीं करते और अपनी पुस्तकें दिखाने में भी पाना-कानी करते हैं। प्रस्तुत प्रबन्ध के लेखक को भी इन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। आशंकापूर्ण वातावरण ने उसके मार्ग में अनेक शूलों को अंकुरित कर उसे पर्याप्त रूप से कंटकाकीर्ण कर दिया। परन्तु प्रभु के प्रसाद से सभी विघ्न-बाधाएँ दूर होती चली गई। मत्स्यप्रदेश वासी होने के कारण ही कदाचित यह संभव हो सका ।
लिखित सामग्री को अभिव्यक्ति के प्रकरण में अनेक विचार सामने प्राये। कभी विचार हा कि सामग्री का विभाजन राजाओं अथवा प्राश्रयदातानों के राज्यकाल
अनुसार किया जाये और इस प्रकार प्रत्येक काल के साहित्य का मूल्यांकन हो। परन्तु इसमें दुविधा यह थी कि मत्स्य के अन्तर्गत सभी राज्यों का पृथक-पृथक अन्वेषण करना पड़ता और यह विवेचन कभी पुनरुक्तियों से बच न पाता । दूसरा विचार यह उत्पन्न हुआ कि क्रमागत रूप से लेखकों और उनकी रचनाओं का विवरण देकर फिर उसकी आलोचना की जाये। परन्तु यह शैली भी अधिक उपयोगी सिद्ध न हुई क्योंकि ऐसा करने से प्रबन्ध केवल 'नॉट्स' जैसा रूप धारण कर लेता । अन्त में यही उचित समझा गया कि विषय के अनुसार सामग्री को बांट दिया जाये। इस प्रकार के विभाजन से समस्त सामग्री की क्रमागत प्रवत्तियों का भी पता चल सकेगा और उनका मूल्यांकन करने में भी सुगमता हो जायगी। तीसरा लाभ यह होगा कि हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों के दृष्टिकोण से अध्ययनकर्ता को यह भी मालूम हो सकेगा कि किसी भी प्रसंग में मत्स्य प्रदेश की देन क्या है ? कितनी है ? और कैसी है ? वास्तव में यही इस प्रबन्ध का लक्ष्य भी था। प्रबन्धकर्ता का विश्वास है कि इस प्रणाली द्वारा वैज्ञानिक अनुसंधान की रक्षा हो सकी है और व्यवहारिकता का भी निर्वाह हो गया है। फिर मत्स्य प्रदेश की जो विशेषता है वह भी सामने आ गई है। उदाहरण के लिए "अनुवाद"-प्रसंग । प्रलोच्य काल का यह प्रसंग बड़ा ही मधुर और महत्त्वपूर्ण है । आज जब अहिन्दी भाषा-भाषी अथवा अंग्रेजी के हिमायती हिन्दी साहित्य में प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद तक के प्रभाव की पोर इंगित करते हैं तो यह प्रकरण उन्हें एक प्रकार की चुनौती देता है । यह दुर्भाग्य की बात है कि अप्रकाशित होने के कारण यह सभी साहित्य जनसाधारण से दूर पड़ा है परन्तु इससे यह तो स्पष्ट है ही कि हिन्दी वालों ने उसकी प्रवहेलना ही नहीं की, उसके महत्त्व को भी नहीं समझा।
संक्षेप में प्रस्तुत प्रबन्ध सामग्री की प्रचुरता, मूल पुस्तकों के अध्ययन और परिणाम, सामग्री की अभिव्यक्ति एवं अब तक को प्रकाशित एतद्विषयी साहित्य के सदुपयोग प्रादि सभी दष्टिकोणों से मौलिकता, गम्भीरता और विशदता के प्रयास का विनम्र दावा कर सकता है। प्रस्तुतकर्ता को तभी प्रसन्नता होगी जब विद्वद्वर्ग अपनी सम्मति से इस में दिए गए परिणामों को अपनी सहमति प्रदान करेगा।
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