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अध्याय ७ - अनुवाद-ग्रन्थ
अनुवाद- तब करकट कही यह कैसी कथा है । तब दमनुक कहत है। कौंने ऐक रूष पाई ऐक
काग अरु अंक कागनि रहैं । सु वा वष के पोड़र में ऐक कारौ सांपु रहै। सु येह कागु के बालकान्ह को पावो ही करै । जब कागुनी को गरभ बहुर रह्यौ तब उन कागु सों कही, अहो स्वामी यह रूष छाड़ अन्यत्र वास कीजे। ईहां ईह कारे सांप
तै हमारी संतत न उबरिहै । इसी प्रकार विग्रह कथा भी है । एक श्लोक इस कथा का भी देखें-- श्लोक-- 'हंसः सह मयूराणां विग्रहे तुल्य-विक्रमे ।
विश्वासवंचिता हंसा: काकैः स्थित्वारिमंदिरे । टीका-हंग सौं अरु मयुर सौं जब वैरु उपज्यो तब काग मयूर के कैदि होइ
करि हंस हरायो। एक और भो
श्लोक- यः स्वभावो हि यस्य स्यात्तस्याऽसौ दुरतिक्रम: ।
श्वा यदि क्रियते राजा तत्कि नाश्नात्युपानहम् ।। टीका-जाते जाको जु सुभाव है सु तासों छोड्यो न जाइ । जातें कूकर जो राजा करिये।
तेहू पनहीं के बाइबो न छाडै । हितोपदेश आदि के अनुवाद इस बात को बताते हैं कि अनुवाद करने वालों ने मूल की बारीकियों पर कोई खास ध्यान नहीं दिया, फिर भी भाव को रक्षा संतोषजनक रूप में हो सकी है । उस समय मत्स्य-प्रदेश में अनुवाद का पुष्कल कार्य जिस द्रुत गति से हुआ उसको देख कर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है ।
'सुजानविलास' के नाम से सोमनाथ ने सिंहासन बत्तीसी का अनुवाद किया है। इस ग्रंथ को सरलता से अनुवाद ग्रन्थ माना जा सकता है। सुजानसिंहजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था---
सभा मद्धि इक दिन कही, श्री सुजान मुसिक्याइ ।
सौमनाथ या ग्रंथ की, भाषा देहु बनाइ ॥ इम ग्रन्थ को कथा साहित्य में लेकर वहीं विवरण दिया गया है ।
मत्स्य प्रदेश में संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद का कार्य पर्याप्त हुना। इस संबंध में कुछ बातें उल्लेखनीय हैं
१. अनुवाद के लिए सभी प्रकार की धार्मिक पुस्तकें तथा नीतिसंबंधी साहित्य चुना गया ।
२. महाभारत और रामायण जैसे दीर्घकाय ग्रन्थों के पद्यात्मक अनुवाद मत्स्य के कवियों का गोरव बढ़ाने में ज्वलंत प्रमाण हैं। उन कवियों की विद्वत्ता, कर्मण्यता और साथ ही राजाओं की गुणग्राहकता तथा उदारता वास्तव में प्रशंसनीय है ।
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