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________________ मत्स्य-प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन २५६ घुमडि गरजि मेध परन सलिल लाग्यो , जोर सौं मुसलधार मारुत को सर है। ताही काल कीस एक भीजती पहार त्यागि , बैठ्यो वाही वृक्ष तरै कांपतो सौ धर है। मूल संस्कृत से मिलाएं ___'अस्ति नर्मदा तीरे पर्वतोपत्यकायां विशालः शाल्मलीतरुः । तत्र निर्मितनीडक्रोडे पक्षिणः सुखं वर्षास्वपि निवसति । अथै कदा वर्षासु नीलपटलरिव जलधरपटलैरावृते नभस्तले धारासारैमहती वृष्टिर्बभूव । ततो वानरांस्तरुतलेऽवस्थितान् शीताकिम्पमानानवलोक्य.. .. ताते मूरख को उपदेस । कबहुन दीजै सुनौं नरेस ।। मूल संस्कृत-'अतो हंऽब्रवीमि-विद्वानेवोपदेष्टव्यो नाविद्वांस्तु कदाचन ।' पुस्तक की समाप्ति पर कवि का कथन है-- यह कथा विग्रह संस्कृत की वरनि मैं भाषा करी। नृप हेत जसमतस्यंघ जू के सदां रस अानन्द भरी ।। विष्यात सैना वंस में कवि देविया गुरुसों सुनी। तिनकी कृपा को लाय बल अनुसार मत अपने भनी॥ हितोपदेश का एक और अनवाद मिला किन्तु दुर्भाग्य से यह पुस्तक भी अपूर्ण है । प्रथम ३५ श्लोक नहीं मिलते । इस हस्तलिखित प्रति में मूल संस्कृत श्लोक भी दिए हुए हैं और उनका अनुवाद भी। गद्यभाग का अनुवाद गद्य में ही किया गया है । श्लोक भी गद्य में ही अनूदित हैं। एक उदाहरण देखिए-- मूल-उपायेन हि यच्छक्यं न तच्छवयं पराक्रमः। काक्या कनकसूत्रोण कृष्णसर्पो निपातितः ।। अनुवाद- जाते जु कारज उपाय कर होई, सु बल तै कबऊ न होई । जातें एक कागनी सोने के सूत्र कर कालो सांप मरवायो। मल-करकट: पृच्छति, कथमेतत । दमनकः कथयति कस्मिंश्चित्तरौ वायसदंपती निवसतः [स्म] । तयोश्चापत्यानि तत्कोटरावस्थितेन कृष्णसरण खादितानि । ततः पुनर्गर्भवती वायसी वायसमाह-नाथ त्यज्यतामयं तरुः । अत्र यावत्कृष्णसर्पस्तावदावयोः संततिः कदाचिदपि न भविष्यति । १ बलवंतसिंहजी के पश्चात् जसवंतसिंहजी भरतपुर के राजा हुए। इनका राज्यकाल १९०६ से चला। संभव है बलवंतसिंहजी ने अपने पुत्र के लिए इस पुस्तक का प्रारंभ कराया हो। कवि ने अपने गुरु रसानंद का नाम भी इस छंद में युक्ति से धर दिया है। यह ग्रंथ निश्चयपूर्वक महाराज जसवंतसिंहजी के समय में ही समाप्त हुप्रा 'असें विकटेस श्री ब्रजेंद्र जसवंत स्यंघ मंगलसमेत तुमै देउ मेरू मन के ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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