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मत्स्य-प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
२६१ ३. मत्स्य में अनुवाद का कार्य साधारणतः अच्छा हो हुा । मूल से बिलकुल मेल खाना तो उस समय न आवश्यक था और न सम्भव, परन्तु इन अनुवादों में मूल को भाव-रक्षा अच्छी तरह हो पाई है ।
४. मत्स्य के अन्य साहित्य ग्रन्थों के सदृश अनुवाद साहित्य भी अधिक अलंकृत नहीं है। साथ ही यहाँ पर अलंकृत ग्रन्थों के अनुवाद भी नहीं हुए क्योंकि उनका प्रचार केवल संस्कृत को विद्वन्मंडली तक सीमित था।
५. यहां के कवियों का ध्यान लोक-साहित्य की ओर अधिक गया । धर्म की दृष्टि से रामायण, महाभारत, भागवत और गीता हिन्दू धर्म के अभिन्न अंग हैं। आज भी इन सभी के पारायण तथा पाठ होते रहते हैं । इन ग्रंथों का प्रचार तथा सम्मान दोनों ही हैं। ये ग्रंथ जन-जीवन का अंग बन चुके हैं, और मत्स्य के कवियों ने भी इन्हीं ग्रंथों की ओर ध्यान दिया, जन-साहित्य में प्रचलित लोक कथाओं के भी अनुवाद किए गए जैसेहितोपदेश, सिंहासन बत्तीसी, शुक बहत्तरी आदि ।
संस्कृत पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ फारसी पुस्तकों के अनुवाद भी हुए। मुसलमानों के प्रभाव से यहां भी फारसी का प्रचार था और पढ़े लिखे लोगों में फारसो जानने वालों को ही संख्या अधिक होती थी। मुगलों की राजभाषा होने के नाते देश में फारसो का प्रचार सर्वत्र हो गया था । हमें विश्वस्त रूप से यह कहा गया था कि 'अनवार सुहेली' का हिन्दी अनुवाद भरतपुर राज्य में किया गया था, किन्तु बहुत खोजने पर भी यह अनुवाद प्राप्त नहीं हो सका ।' प्राईने अकबरी-हिंदी में लिखी मिली। पुस्तक का प्रारम्भ इस प्रकार है
'यह राजनीत अरु पाईन माफिक हुकम अकबर बादसाह के लिषी जात है, साहजादे अरु उमराव अरु प्रालिम अरु कोतवाल अरु सब कारवारी याही आईन माफिक राज काज में बरते।'
यह पुस्तक अलवर राज्य में ही लिखी गई। इसमें राजनीति तथा सामान्य नीति संबंधी अनेक बातें हैं--
'ईश्वर को मनतें न भुलाइये । बिना उपदेश और भली चर्चा के मुष तें कोई वचन नहीं काढ़िये । जो कछु कारज किया चाहे ताका भेद काहू को न दोजे । बालक
१ हर्ष का विषय है कि अपने लन्दन-प्रवास में ब्रिटिश म्यूजियम के प्राच्यविभाग में मुझे इस
का हिन्दी पद्यानुवाद 'हितकल्पद्रुम' नाम से मिल गया। इस पर मेरा विस्तृत लेख 'अनुशीलन' सन् १९६२, भाग २ में प्रकाशित हो चुका है ।
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