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________________ २३० अध्याय ६-गद्य-ग्रन्थ बात-बिसन सरमा कहतु है एक समै वन में बरद अरु सिंघ बाढयौ सनेह । दुष्ट लोभी स्यार उनक सनेह दूर करायौ। तब राजपुत्रन कही यह कैसी कथा है। तब विस्न सरमा कहत है दछिन देस में सुमतितिलक नाम नगर है। तिहां बरधमान नामक बनीया बस। जद्यप वाकै बहुत धन है । तद्यिपि वाको और बनीयां के धन बहुत ईच्छा भई । बात- अरु जाकै थोरी तिसना होय । धीरजवंत सयांनो होय । सूर ज्यूं पछि छांही नाही छाकै त्यूं साहिब की सेवा न छाकै आग्या पाय ऊजर नांही करै । सो राजा के निकट जाय रहै । श्लोक-उपायेन हि यच्छ् क्यं न तच्छक्यं पराक्रमः । काक्या कनक सूत्रेण कृष्न सो निपातितः ।। जाते जु कारज उपाय कर होई । सु बल ते कबऊ न होई । जाते एक कागनी सोने के सूत्र करि कालो सांप मरवायो। तब करकट कही यह कैसी कथा है .." इस गद्य में कुछ विशेष बातें दिखाई देती हैं, जैसे१. शब्दों के रूप बहुत बिगड़े हुए हैं । संस्कृत का 'सुहृद' 'सुरद' रूप में हैं । तृष्णा 'तिसना' रह गई है। २. शब्दों का रूप स्थिर नहीं है, एक हो शब्द कई प्रकार से लिखा गया है, जैसे १ विष्णु, विसन, बिसनु, विस्न । २ यद्यपि, जद्यप, जद्यपि। ३. इकारान्त और ईकरान्त का भेद नहीं पाया जाता । ४. क्रियानों के रूप अनेक प्रकार के मिलते हैं । ५. लय-गीतात्मकता भी है अरु जाकै थोरी तिसना होय। धीरजवंत सयांनो होय ।। यह देखने की बात है कि यह प्राज से २००, २२५ वर्ष पहले के गद्य का नमूना है, फिर भी समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है। इसके उपरान्त रीति-काव्यों में अनेक प्रकरण ऐसे हैं जिनमें गद्य का प्रयोग स्थान-स्थान पर किया गया है । गोविंदानन्दघन का एक उदाहरण देखें अथ अभिनव गुप्त पादाचर्ज को तत्व लक्ष्ण-- (रस की व्याख्या करते हुए) 'रसिकनि के चित्त में प्रमुदादि कारण रूप करि के॥ वासना रूप करि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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