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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
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(ई) अन्य प्रदेशों को ही तरह यहां भी गद्य-साहित्य प्रचुर मात्रा में नहीं मिलता और उसके द्वारा किसी विशेष महत्त्वपूर्ण उद्देश्य को पूर्ति भी नहीं होती। समय-समय पर अावश्यकता के अनुसार साधारण रूप में गद्य का प्रयोग होता रहा ।
'भारतीय प्राचीन लिपि माला' में पं० गौरीशंकर हीराचंद अोझा ने राजस्थान में प्रयुक्त होने वाली ७ बोलियां-मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी, ढूंढाड़ो, हाडौती, मेवाती और व्रज बताई हैं। मत्स्य में व्रजभाषा को ही प्रचुरता है । भरतपुर, धौलपुर तथा करौली जिलों की तो यह भाषा है ही, साथ ही अलवर के पूर्वी भाग में भी इसी का प्रयोग होता है । अलवर और भरतपुर के मेवात प्रदेश में मेवाती बोली जाती है जो अपनी कर्ण-कटुता तथा विशेष लहजे से जानी जा सकतो है ।
विक्रम की अठारहवीं सदी के अंत में तथा उन्न सवीं शताब्दी के प्रारंभ में कवि 'कलानिधि' ने हिन्दी साहित्य को अनेक बहुमूल्य ग्रन्थ-रत्न प्रदान किये। उन्हीं के द्वारा १८वीं शताब्दी के गद्य का नमूना भी प्राप्त होता है। कवि ने 'उपनिषद्सार' नाम का एक ग्रंथ गद्य में रचा। इसमें 'तैत्तिरीय, माण्डूक्य, केन आदि उपनिषदों के सूत्रों की व्याख्या हिन्दी में की गई । इस पुस्तक का एक नमूना
सूत्र-'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा'
व्याख्या-'याको अर्थ नित्य अरु अनित्य इन वस्तुन को समुझिवी अरु शम दमादिक अरु वैराग्य अरु मोक्ष की इच्छा येयों चारि साधन हैं। इन चारयौ साधन सिद्धि भये उपरान्त याहि हेतु तें ब्रह्म की जिज्ञासा कहै जानिने की इच्छा तासौं श्रवण मनन निदिध्यासन करि अविद्या नाश भये अपरोक्ष साक्षात्कार ब्रह्म को सूचित कर चौ।'
हितोपदेश को हिन्दी गद्य में लिखने के अनेक प्रयास हुए। १८वीं सदो का एक नमूना देखिए जिसे करौली राज्य के आश्रित देवीदास ने प्रस्तुत किया था । श्लोकों के अनुवादों में प्रयुक्त गद्य का रूप देखना उचित होगा। यह एक प्रकार से उन श्लोकों की, उनके शब्दों सहित, टीका भी है'अथ सुरद भेद लिषते
हा- राजपुत्र असे कहतु, सुनों जु सद्गुर धीर ।
___ जब हमकू इच्छा भई, सुरद भेद सुख गीर ।। पुन राजपुत्रन विष्णु शर्मा सों कही-अहो गुरु मित्रलाभ तो हम सुन्यौ। अब सुरद भेद कथा सुनिवे की ईच्छा है । तब बिसन सरमा कहतु है
दुहो- समै ऐक सिध वन विषे, बढ्यो बरद सुं नेह ।
दुष्ट आर सी करी, बरद, मरावत लेऊ ।।
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