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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
राज्य करते थे । इस किले को सिकन्दर लोदी ने जीत कर मुसलमानी राज्य में मिलाया । खानुग्रा की लड़ाई के पश्चात् यह मुगलों के हाथ आया । भरतपुर, अलवर पर चढ़ाई करने वाला नजफखां सन् १७७५ में यहां भी पहुँचा था । कुछ समय बाद धौलपुर मराठों के हाथ लगा । सन् १८०६ में धौलपुर, बाड़ी, राजाखेड़ा और सरमथुरा को मिला कर महाराज राना कीरतसिंह को दे दिए गए। ये बमरोली के रहने वाले जाट थे और कीरतसिंह यहां के प्रथम महाराज राना थे । इन्होंने १८०६ ई० से १८३६ तक राज्य किया । इनके उपरान्त भगवंतसिंह राजा हुए, जो अंग्रेजों के बहुत भक्त थे । निहालसिंह इनके पौत्र थे और उनका शासन १८७३ से १६०१ ई. तक रहा। हमारा आलोच्य काल भी यहीं तक चलता है । इनके पश्चात् इनके बड़े लड़के रामसिंह राजा हुए, तदुपरान्त उदयभानसिंहजी महाराज- राना हुए। मत्स्य के प्रथम राज्यप्रमुख ये ही महानुभाव थे । यह स्पष्ट है कि धौलपुर और उसका किला बहुत प्राचीन हैं, किन्तु ग्राज का धौलपुर सन् १८०६ में ही अपनी सीमा निर्धारित कर सका । धौलपुर की साहित्यिक चेतना विशेष महत्वपूर्ण नहीं रही ।
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४. करौली -- यहां के महाराज जादों राजपूत हैं । ये कृष्ण के यादव वंश से अपना सम्बन्ध स्थापित करते हैं । किसी समय इनका राज्य बहुत बड़ा था । ११वीं शताब्दी में यहां का राजा इतिहास प्रसिद्ध विजयपाल था । अर्जुनपाल ने यह प्रान्त १३२७ ई० में प्राप्त किया और १३४८ आधुनिक राजधानी करौली की स्थापना को । इस पर मुसलमान तथा मुगलों के अधिकार भी रहे सन् १८१७ में करौली को मराठों से ले लिया गया और करौली के राजाओंों को दे दिया । सन् १८५० में नरसिंहपाल यहां के राजा हुए और सन् १८५४ में मदनपालजी को राज्य मिला । सन् १८८६ में महाराज भंवरपाल गद्दी पर बैठे और इनके उपरान्त भोमपालजी तथा गणेशपालजी राजा हुए ।
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इन चारों राज्यों में नीचे लिखी कुछ बातें समान रूप से पाई जाती हैं, जिनसे इस प्रदेश की संस्कृति एवं साहित्य निरन्तर प्रभावित होते रहे और यहां की एकता स्थिर रही ।
१. सिंघिया के साथ सुलह करते समय जब अंग्रेजों द्वारा उसे गोहद दिया गया था । २ 'विजयपाल रासो' की एक प्रामाणिक पुस्तक यहां उपलब्ध है ।
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