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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
२०१ 'श्लोक' का अर्थ 'छंद' ग्रहण करना उचित होगा। सिंहासन की मूर्तियों ने बत्तीस कहानियां कहीं
पुतरी बत्तीसों कही, प्रगट कथा बत्तीस । जो तू असौ भोज नृप, करै कृपा जगदीस ।।
कहि के कथा प्रगट भई सिगरी । सजि सजि देव लोक को डगरी ।। धनि धनि भूप हमें सुख दयौ । तुम परताप साप मिटि गयो । भूपति वचन उचार्यो अस ।
को तुम साथ भयो है कैसे ? यह एक ऋषि के शापवश हुआ था, क्योंकि ये पुतलियाँ उसके ऊपर हँस गई थीं। ___ यह हस्तलिखित प्रति बहुत पुरानी है परन्तु अक्षर बड़े सुन्दर हैं। डीग और वैर के दरबारों में कवियों का बड़ा सत्कार होता था और राजा के ज्ञान तथा मनोविनोद की वृद्धि करते हुए ये कवि साहित्य-सृजन में लगे रहते थे । कवि का ज्ञान बहुत विस्तृत है, साथ ही उसको संख्या गिनाने का भी शौक है । मिठाई, पकवान, वृक्ष, फल आदि के वर्णन बहुत विस्तार के साथ किये गये हैं। इस ग्रन्थ से अखैराम की बहुत प्रसिद्धि हुई ।
प्रत्येक अध्याय के बाद सुजानसिंहजी की प्रशंसा लिखने की वही प्रणाली इस पुस्तक में भी है जो सूदन रचित सुजानचरित्र में मिलती है । अन्तर केवल इतना ही है कि सुजानचरित्र में उस छंद की चतुर्थ पंक्ति में वर्ण्य-वस्तु का वर्णन होता है और सिंहासन बत्तीसी में ये चार पंक्तियां ज्यों की त्यों दी गई हैं। ३. विक्रम विलास-में कवि ने अपने संबंध में भी कुछ बातें लिखी है
भोज नगर जमुना निकट, मथुरा मंडल माझ । तहां भए भीषम सुकवि, कृष्ण भक्ति दिन सांझ ।। ताकें मिश्र मलूक पुनि, श्रुति सुन्दर सब अंग।
खोजत वेद पुरान सब, कियौ नहीं चित भंग ॥ उनके गोविंद, पुनः क्रमशः दामोदर, नाथूराम, जगतमणि और उनके
अषराम ताके भय, सहिस कविन अनुसार ।
जो कछु चूक्यौ होइ तो, लीजै सुकवि सुधार । अपने आश्रयदाता के बारे में भी लिखा है--
जदुकुल भार धरिवे को भयौ सेस जैसे , प्रबल प्रहार करिवे कों द्विजराज सों। .
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