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________________ १६४ अध्याय ४ - भक्ति-काव्य दयाबोध में भी अनेक प्रसंग 'ग्रंग' नाम से लिखे हैं, जैसे-गुरु-महिमा का अंग, सुमिरन का अंग, सूर का अंग, प्रेम का अंग, वैराग का अंग, साध का अंग, अजपा का अंग । चरनदासजी ने 'श्री ज्ञान स्वरोदै' भी लिखा है, जिसमें २२७ छंद हैं । जिस हस्तलिखित प्रति को मैंने देखा उसमें ३८ पत्र हैं।' यह एक आध्यात्मिक तथा दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें स्वरों के भेद भी बतलाये गए हैं और उनका ज्ञान कराया गया है भेद स्वरोदै बहुत हैं, सूक्षम कह्यौ बनाय । ताकू समझ विचार ले, अपनी चित मन लाय ।। धरन टरै गिरवर टरै, ध्रुव टरै पुन मीत । वचन स्वरोदै नां टरै, मुरली सुत रनजीत ।। इडा पिंगला सुषमना, नाडी कहियें तीन । सूरज चंद विचार कै, रहै स्वांस लौ लीन । स्वांस बारणवै क्रोड की, अरब जान नर लोय । बीत जाय स्वासा सबै, तब ही मृतग होय ।। इकीस हजार छस्सो चलें, रात दिना जो स्वांस । बीसा सौ जीवै बरस, होय अधन को नांस ।। पावक और प्रकास तत, वाम नत्र जो होय । कछू काज नहीं कीजिये, इनमें बरजू तोय ॥ दहनों स्वर जब चलत है, वहां जाय जो होय । तीन पांव प्रागै धरे, सूरज सो दिन होय ॥ गर्भवती के गर्भ की, जो कोई पूछे प्राय । बालक होय के बालकी, जीव के मर जाय ॥ बावें कहिये छोकरी, दहनें बेटा होय । वाको वायों स्वर चले, जीवत ही मर जाय ॥ उनकी 'बानी' से यह स्पष्ट है कि वे पंडे पुजारियों द्वारा प्रचलित अवतारों को नहीं मानते थे किन्तु वैसे 'अवतारवाद' का प्रतिपादन करते थे। कर्म-कांड और मूर्तिपूजा की निंदा स्पष्ट रूप से की गई है। प्रचलित देवी-देवताओं के नाम पर चलाए गए पाखण्ड से भी जनता को आगाह किया गया है। परन्तु कबीर, दाद आदि संतों को बातें भो इन चरनदासियों में उसी तरह से पाई जाती हैं । दार्शनिक दृष्टि से चरनदासो निर्गुणी कहे जा सकते हैं, परन्तु व्याव १ इस ग्रंथ का बहुत प्रचार था। राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान में ही इसकी तीन (ह० लि०) प्रतियां हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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