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________________ मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन १६५ हारिक दृष्टि से वे सगुण को ही मानते हैं। ये सगुणमार्गी होते हुए भी योग और साधना को ग्रहण करते हैं । सब कुछ मिला कर इनका झुकाव सगुण की ओर अधिक है किन्तु इनके सगुण में आडंबर की मात्रा कम है। इस प्रदेश में और बाहर भी महात्मा चरणदासजी के पदों का बहुत प्रचार था और उस समय की प्रचलित पद्धति के अनुसार जो पद-संग्रह किए जाते थे उनमें इनके पद स्थान-स्थान पर मिलते हैं। राजस्थान प्राच्य-विद्या प्रतिष्ठान में उपलब्ध दो संग्रहों में इनके कुछ पद मिले । ये संग्रह दो सौ वर्ष पुराने हैं और तुलसी, सूर, नंददास, अग्रदास आदि के पदों के साथ चरनदासजी के पद भी मिलते हैं। उनमें से दो तीन पद नीचे दिए जा रहे हैं-भाषा का जो रूप इन हस्तलेखों में मिलता है, वही दिया जा रहा है। ऊधो के प्रति गोपियों का कथन - ऊधो का जाने हमारे जीव की। चात्रग वृद चकोर चंद कू, असे हमको पीव की ।। नेह के मानवी धर करि खैची, मार गये हरि ति[ती]र की। भाल वियोग हीये बीच खड़को, सुध न लहे या जीव की ।। चरनदास सखि निसदिन तरफै, जो मछरी बीन नि[नी]र की। कहै कछु अोर करै कछु पोर, पाखर जात अहीर की॥ अहीर जाति के होकर कृष्ण की 'कथनी' और 'करनी' में अंतर होना ही चाहिए। ____ एक और पद देखिए जिसमें चरणदासजी का सन्तमतानुगमन स्पष्टतः परिलक्षित होता है। यह पहले हो कहा जा चुका है कि चरणदासजी के काव्य में निर्गुण और सगुण दोनों दिखाई देते हैं। अब जम का करेगा रे। अनहद सुरती रंगीलो लागी, जिह चंद पवन नहीं । ... ... ... पानी जहाँ जाय घर छाया। जामै आवागमन नेरा ज्ञान का कलप लगाया ॥ पुरन ब्रह्म सकल विधि पुरा जिहा किया हम बेरा। सील सुरत दा घरचा प्ररावा इसट पावै नेरा॥ क्र० सं० १८८२ और १८६० पर ये संग्रह-ग्रंथ मिले । इनमें से पहले का संग्रह संवत् १८१६ है और दूसरे का १८२७ । इसका अभिप्राय यह हुआ कि चरणदासजी के जीवन काल में ही ये पद-संग्रह किए गए थे और उनकी ख्याति दूर-दूर फैल चुकी थी। - 'दा'-संबंधसूचक यह प्रयोग सोमनाथ के 'प्रेम पचीसा' में भी मिलता है, यथा-'दिल अंदर दा परदा'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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