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उन्होंने न केवल स्वतन्त्र रूप में वरन् बालावबोध, टब्बा तथा टीकाओं आदि के रूप में भी राजस्थानी गद्य को अपनाया है तथा उसको पनपाने की चेष्टा की है। इस दृष्टि से तरुणप्रभसूरि द्वारा सं० १४११ में लिखित षडावश्यक बालावबोध यहां उल्लेखनीय है। १५ वीं शताब्दी के अंतिम चरण तक आते आते राजस्थानी गद्य में काफी निखार आ गया था और अपने साहित्यिक रूप में उसकी स्थापना हो चुकी थी जिसके प्रमाण में माणिक्यसुंदरसूरि द्वारा सं० १४७८ में रचित वाग्विलास के गद्यांशों को देखा जा सकता है, जिनमें गद्य के परिमार्जन के साथसाथ लयात्मकता, अनुप्रास एवं वर्णन-कौशल की खूबी परिलक्षित होती है। __ भाषा के क्रमिक विकास की दृष्टि से १५ वीं शताब्दी की रचनाओं में अपभ्रंश का प्रभाव विद्यमान है क्योंकि उनमें 'अउ' तथा 'प्राइ' के प्रयोग प्रायः सर्वत्र मिलते हैं। इस समय की जैनेतर गद्य रचना अचलदास खीची री वचनिका में भी इस प्रकार के उदाहरण देखे जा सकते हैं। शिवदास गाडण रचित यह रचना गागरोन के खीची शासक अचलदास तथा मांडण के बादशाह के युद्ध को लेकर लिखी गई है जिसमें राजस्थानी गद्य का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है। उसकी अभिव्यक्तिगत विशिष्टता के आधार पर डा० टेसीटरी ने उसे प्राचीन राजस्थानी का एक क्लासिकल मॉडल कह कर उसके महत्त्व को प्रदर्शित किया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मुस्लिम सभ्यता के संपर्क के कारण राजस्थानी में अरबी और फारसी के शब्दों का आगमन भी इस समय हो गया था। राजस्थानी गद्य के क्रमिक विकास का इतिहास प्रस्तुत करना यहां अपेक्षित नहीं है । अतः यहां केवल यह बताना पर्याप्त होगा कि १५ वीं शताब्दी के अंत तक आते-आते राजस्थानी गद्य का परिमार्जन एक सीमा तक हो गया था और १६ वीं शताब्दी में तो वह अनेक साहित्यिक विधाओं का माध्यम बनने लगा। १७ वीं और १८ वीं शताब्दी में गद्य रचनाओं का निर्माण ज्ञात तथा अज्ञात लेखकों द्वारा विपुल परिमाण में हुआ है जिसका अधिकांश भाग प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों में प्राज भी सुरक्षित है । गद्य के विभिन्न रूप
राजस्थानी गद्य का यह विकसित रूप बात, ख्यात, पीढी, वंशावली, वचनिका आदि अनेकानेक रूपों में प्रयुक्त हुआ है। इनके अतिरिक्त राजस्थानी गद्य के माध्यम से अनुवादों की परंपरा भी कोई १४ वीं शताब्दी से प्रारम्भ हो गई थी और जिनमें जैन-विद्वानों का ही विशिष्ट हाथ रहा है। अनुवाद तथा टीकायें अनेक रूपों में उपलब्ध होती हैं। इन टीकाओं के मुख्य रूप टब्बा,
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