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बालावबोध, वार्तिक आदि हैं। आगे चल कर अरबी फारसी आदि भाषाओं के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का उल्था भी राजस्थानी गद्य में किया गया है, जिसको सामग्री हस्तलिखित ग्रंथों में हजारों पृष्ठों में लिपिबद्ध हुई है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि रामायण, महाभारत, पुराण, हितोपदेश आदि को पूर्ण रूप में अथवा प्रांशिक रूप में इस भाषा के माध्यम से जनता तक पहुंचाने का सफल प्रयास भी अनेक विद्वानों ने किया है। स्थानीय रियासतों के प्राचीन राजकीय रेकार्डो को देखने से यह प्रमाणित होता है कि बड़े लंबे अर्से तक इस प्रकार के कामकाज राजस्थानी भाषा में ही होते थे। अत: समाज की व्यावहारिक भाषा राजस्थानी ही थी। कथानों का वर्गीकरण
उपरोक्त गद्य के विभिन्न रूपों में वात और ख्यात का विशिष्ट महत्त्व है। मुंहता नैणसी, दयालदास तथा बांकोदास की ख्यातें बहुचर्चित हैं. परन्तु इन ख्यातों के अतिरिक्त राठोड़ों, भाटियों, कछवाहों, चौहानों आदि को ख्यातें भी उपलब्ध हैं, जिनका महत्त्व जितना साहित्यिक दृष्टि से नहीं है, उतना ऐतिहासिक दृष्टि से है। साहित्यिक दृष्टि से वात-साहित्य एक ऐसी विधा है जिस पर सही माने में राजस्थानी भाषा गौरव का अनुभव कर सकती है। अन्य भारतीय भाषाओं में इतना विषय-वैविध्य तथा कलात्मकता से परिपूर्ण कथासाहित्य उपलब्ध होना कठिन है। इस कथासाहित्य को मोटे तौर पर पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है
१. ऐतिहासिक २. अर्ध ऐतिहासिक ३. पौराणिक
४. धार्मिक ५. सामाजिक ऐतिहासिक कथायें प्रायः ख्यातों के प्रांशिक रूप में तथा स्फुट रूप में उपलब्ध होती हैं, जो कि प्राचीन शासकों, योद्धाओं तथा विशिष्ट प्रकार के चरित्रनायकों को लेकर लिखी गई हैं । अर्ध ऐतिहासिक कथाओं में कल्पना तथा जनश्रुतियों का बाहुल्य है, परन्तु वे ऐतिहासिक कथाओं के अपेक्षा अधिक कलात्मक हैं । इस प्रकार की कथाओं की बहुलता का मुख्य कारण मुगलकाल में यहाँ घटित होने वाली अनेकानेक घटनाएँ हैं जिनमें यहाँ के शासक वर्ग के शौर्य तथा कर्तव्यपरायणता व स्वामीभक्ति आदि गुणों का बखान किया गया है । प्रत्येक साहित्य प्राचीन सामाजिक-परम्पराओं एवं मान्यताओं से प्रभावित ही नहीं होता, अपितु अपने पूर्वजों की थाती के रूप में बहुत कुछ उनसे ग्रहण करने और उस पर मनन करने को लालायित रहता है । अतः अनेक पौराणिक प्रसंग
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