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________________ [ ४ ] सहज ही में राजस्थानी कथा - साहित्य की निधि बन गये हैं । हमारी संस्कृति में धर्म का स्थान सर्वोपरि रहता श्राया है, वह केवल देवालय तक ही सीमित न रह कर हमारे श्राचार-विचार और दैनिक नित्य कर्म को बराबर प्रभावित करता रहा है । ऐसी स्थिति में धर्म की शिक्षा-दीक्षा तथा उसके अनुकूल प्राच रण की प्रवृति डालने के उद्देश्य से विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों ने अनेकानेक कथाओं का प्रचलन हमारे समाज में किया । जिनमें एकादशी, शिवमहात्म्य, शनिश्चरजी, सत्यनारायणजी आदि की कथायें प्रमुख हैं । इनके अतिरिक्त प्रायः प्रत्येक धार्मिक पर्व से सम्बन्धित कथायें आज भी सुनने को मिल सकती हैं । सामाजिक कथाओं के अंतर्गत नीति, प्रेम और आदर्श-परक कथाओं को रखा जा सकता है । प्राचीनकाल में जब शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध आधुनिक ढंग का-सा संभव नहीं था, तब इस प्रकार की कथायें ज्ञान-वर्द्धन तथा समाज की व्यावहारिक जानकारी का महत्त्वपूर्ण साधन थीं। इनमें प्रेम-कथाओं की संख्या सबसे अधिक है जो कई उद्देश्यों से लिखी जाती रही हैं । इन कथाओं पर सर्वांगीण रूप से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि इनमें अनेक तत्त्व विभिन्न रूपों में गुम्फित होकर मानव-भावनाओं तथा तत्कालीन समाज की मनोदशाओं के अंकन के साथ-साथ उनकी मान्यताओं पर सुन्दर प्रकाश डालते हैं । कथाओं के विकास एवं प्रचार की प्रक्रिया -- कथाों की विविधरूपता के साथ-साथ उनके विकास एवं प्रचार में समाज के कुछ वर्गों का विशिष्ट योगदान रहा हैं जिसकी चर्चा यहाँ करना इसलिए आवश्यक है कि उसे जाने बिना इन कथाओं के उद्देश्य एवं मर्म को समझना सहज नहीं है । इस दृष्टि से जैन विद्वानों, राजघरानों और चारण व भाटों का योग यहाँ उल्लेखनीय है । जैन - जैन- विद्वानों द्वारा रचित अधिकांश कथा - साहित्य धार्मिक है । वह जैन यतियों और श्रावकों द्वारा विकसित एवं प्रचारित होकर उनके धर्मावलंबियों में विशेष प्रतिष्ठित हुआ । कई विद्वानों ने धर्मनिर्पेक्ष कथानों का भी सर्जन किया । कुछ कथाओंों में लौकिक पक्ष की प्रमुखता है परन्तु उन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उस पर धर्म का प्रावरण चढ़ा दिया है । कथाओं के निर्माण की दृष्टि से ही नहीं अपितु उनकी सुरक्षा की दृष्टि से भी जैनियों की सेवायें अविस्मरणीय हैं । उनके नित्यकर्म में स्वाध्याय एवं लेखन आदि नियमित रूप से चलता रहा है जिसके कारण कथाओं के प्रचार एवं उनकी सुरक्षा की तरफ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003392
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Dixit
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1966
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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