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बात बगसीरामजी प्रोहित होरांकी
केसरी बचन
दोहा - हीरांसु कही केसरी, बिध बिध निसचै बात ।
हीरां प्रोहित हेतसुं, रंग रमासी रात ।। १६८
१७. बात - केसरी समाचार भरणै छै । हीरां हेत कर सुर छे । प्रोहितजी महलां ग्रासी, तोने रंगको राते रमासी । ईतरी बात हुई— प्रोहितकी सवारी सहलियां बाडी गई । हीरां पणि श्रापकै महल प्राप्त हुई । हीरां भरोषै बैठी छे । सहेलियां बाडी कानी जोवै छै । अबै तो सूरज्य असतंग हूवी छे । पुजारी पुजा करण मंदर परसै छै, अब तो संभया दरसै छै ।
श्रथ संस्या समे वरणन
छप- अब सूरज्य प्राथम गहर सुनो बति गजिये, मंदर संभया समय संबधूनि सजिय । चमकत घर घर दीप मोद संजोगन मंडत,
कलबलाव कोचरी तीषसुर घुघु तंडत ॥
जब कवल कुंद बिछड़े चकव, इधक चंद छवि उडगनिय । उदयापुर सागर अवर, कहर प्रफुलित कमोदनिय ॥ १६९ दोहा - इण विध सूरज प्राथयो, पुरकर चंद प्रकास ।
अब बरणत सोभा अधिक, हीरां महल हुलास ।। १७० अथ हीरांका महलको वरननं
छंद जात पधरी - वणि महल सपतष म [ ड ] गगन वाट, कण हेम जटत चंदण कपाट ।
ऊतंग भरोषे बण अलंग, पट पाट जरी पड़दा प्रसंग || fant [भ] अनेक बान, बण बिबध रंग जाली बितांन । उण बीच बिछायेत नरम अंग, रेसम दुलीचा चांदणी रंग || छिब हेम रंग चित्रांम बंध, सरसंत झपट नाना सुगंध । चहु वोर महिल छिब रंग चोज, मांनु ग्रनग असमान मोज || ढोलियो मद्ध चंदण सुढाल, बिद्रमी ईस सोभा बिलास । रेसमी बणत कोमल सुरंग, प्रतिफुल गंध सज्या प्रसंग || मिसरु गलीम गदरा मसंद, सज्या कसंत विध विध सुगंध । विछयु प्रजेक सोभा विराज, सुष सागरको मानु समाज ।। १७१
दोहा- यण प्रकार सोहत महल, दमकत छवि ऊद्योत ।
दीपग लग प्रतिबिंब दुत, हिलमल जगमग होत ॥ १७२
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