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________________ [ ४८ ] चंद्रायणी - मसतक कुंभ उपाड गहकै मोर ज्यं, परहां कहां जी, भरीया भूषण श्रंग लहकं होर ज्युं । पांणी कुंभ उपाड धरै पणीयारीयां, गज-गत चंगी चाल सुचंगी नारीयां ॥१८०॥ अलवेली यरण रीत चलती श्रोयणां, घमकै नेवर घाट विलोकं लोयणां । रस-भरीया ज्यांन नरषण राजनुं 1 लयो महोलो नेह हटको लाजनुं ॥। १८१ ॥ ॥ दुही || लोयण मोहण लागणा, सोयण दीठ सह । जोयण कण विध जांननुं, भोयण भमर भर्मह ॥१८२॥ वात- इसी पणीयारीयां जल भरवाने आवे छेइ, मुजरां की सडासड लगाइ । जसीयलने पेष छे, म्यारांमनु वेषै छै । मुधर हसै छै, आम रूप बसे छ । दुहा || दुपटा भूज पेछां दयण, परछल अंतरपट । अंग-अंग उजलती उमंग, छक मद अनंग चट ॥ १५३ ॥ ॥ छंद्रायणा ॥ इण सरवर री पाल हीडोलो बाधसां, दोवड रेसम डोर जरीतर सांधसां । कसीया भमर सूजांण हलो किण काजनै, रीसीया मारूरांण रमाडो राजनै || १८४|| लूहर लूंबा लार गुलाकं दध मांगसां, जसीहल कंठ लगाय अबोली भांगसां । जो मारूराव संजोगी छक घणां, लासा जटाधर भेष पटाकर मेवणा ।। १८५ ।। वात इण तक प्रठे सारांरी समाध्यांन कीधौ । म्यारांमजी को - हम ताकीद करो, सारा सभ उठां माथै धरौ । ढोलीयां ढाढीयांने सीष दीधी, उणारी जसवाद लोधी । सारा सिरदार प्रसवार हुआ । लारली सषीयांरा कहा दूहा - विरह विमासी वालमा, भांगण गावै भींज । इण रतमं सी श्रावसी, कवण रमासी तीज || १८६ ॥ Jain Education International म्यारै सारी महलसुं, जब मिल कोहा जुहार । aastis सजनां लक्या अंसूंधार ॥ १८७॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003392
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Dixit
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1966
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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