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म्यारांम-वायक -
प्रण जसीयल मान अब, कहीया बोल कुबोल । यण बोलारै उपरै, जासां अलवर षोल ॥१५४॥ , , मालू आर्ष म्यारनै, हठ कर तजी हलांण । कलहलीया केकाण ज्यू, करो पलांण-पलांण ॥१५७॥ १३५ (गीत पद्य
६) के बाद म्यारा मारा मुलकमै, चोषी पांचू चीज ।
ही. रागां वाग हद, तीजणीयां नै तीज ॥१६२॥ १३६ के स्थान पर वात का शेषांश इस प्रकार हैवारता
॥म्यारांमजी-वायक !! अब म्यारांमजी बोलीया, दिल का पड़दा षौलीया । वचनां अमरत-वांणसी, सारां देसां सिरे सिवांणची। लणका लहरा लेवे, उमंग की छौला ए वै । सारी नदीयां तूं सिरै, कताबांमै कव तारीफ करै । जिका जमना गंगारै जोडे, तुठी थकी पाप-दालद तोडे । यण भांतको मांकी देस, जठं केलासके भौलभुलै महेस । जिकण सवांणछीका इसा भाषर छै नै इसाइ ठाकुंर छ । । कवत ॥ अकल दुरंग अण षलो वडा परबत चहुं वल,
माही नदी लूणका नीर-धारा अत उजल । अन भाजा नीपज रहै सब दन प्रावासां,
माता बकर षाय चढण ताता बरहासां ॥ पदमणी त्रीया उत्तम पुरष, पड अवगुण न हवै पछी,
मुरधरा तणां जोतां मुलक, सिरै देस सिवीयांणछी ।। १७३ वात-मुलक देसांको सरो मारवाड, मारवाड का मुगटामण सिंवाणची का पाड। सिवांणचीको चौगौ भांडीयावास, जठे मांको रवास । जकण देसमें हमै जावसां, अलवल फेर कदेक पावसां । जसां सहथी सात ही सहेलीयांनै ले जावसां।
मालू-बायक____ जद मालुडी इउं कहै छै-राज! इठ क्यूं न रहै छ ? सीत रत आवसी, वरषा रत जावसी। आभो उजल रंग धरसी, गुडलापण दुर करसी । मोर कलासून करसी, कमोदण विकससी, वादल नकससी। आ रत जद आवैला, जसील मर जावला । सूणौ नी भमर छलां, धण छोड क्यूं चालसो गैलां।
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