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"इतरा माहे वरषा काळ रो मास छ। श्रावण रो महिनो छ । तठे उतराधरा पमी (गी, गा) री चाली थकी घटा पाई छै । मोर, पपीया, कोइला कह का कीया छ । डैडरिया डरूं डरूं कर रहया छै। धरती हरीयों कांचं पहरण रो पास धरी छै । (पृ० ११५) __ पद्यांशों में भी कुछ पद्यों में प्रकृति के उद्दीपक रूप की सुन्दर अभिव्यंजना क गई है :
"वरषा रित पावस करे. नदीयां प (ष) लके नीर । तिण विरीयां सूकलीणीयां, धरणीयांस्यां परचौ सीर ॥ २२६ ।। परवाई झोणी फूरे, रीछी परवत जाय । . तिण विरीयां सूंकलीणीयां, रहती पीव-गल लाय ॥ २२७ ।। (पृ० ११५)
जहां सक शैली आदि का प्रश्न है, इसमें गद्य और पद्य का प्रचुर प्रयोग हुआ है, परन्तु कथा को रोचक बनाने के लिए तथा उसे गति प्रदान करने के लिए संवादात्मक शैली को प्रधानता दी गई है। कुछ एक संवाद तो बड़े ही प्रभावोत्पादक बन पड़े हैं जिससे लेखक के कलात्मक सृजन का अनुमान लगाया जा सकता है। पद्यांशों के अन्त में 'बे' अक्षर का प्रयोग प्रायः सर्वत्र मिलता है, जो कि शायद इसी कथा के आधार पर प्रचलित खयालों की शैली के प्रभाव के कारण है। जहां तक भाषा का प्रश्न है उस पर पंजाबी का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है । कथा-भिन्नता
राजस्थानी भाषा में लिपिबद्ध कथाओं के विभिन्न रूपान्तर भी प्रायः मिलते हैं । मूमल, सोरठ, ऊजळी जेठवा आदि कुछ बातें राजस्थानी और गुजराती दोनों में ही प्रचलित रही हैं । राजा रिसालू की बात भी गुजराती भाषा में भी उपलब्ध होती है जो इस ग्रन्थ के परिशिष्ट १ (क) में प्रकाशित की गई है। दोनों को कथा-वस्तु में तथा स्थानों प्रादि में भी अन्तर है। उदाहरणार्थ कुछ एक भिन्नतायें इस प्रकार हैं :राजस्थानी
गुजराती १ शालिवाहन का पौत्र समस्तकुमार १ शालिवाहन का पुत्र रिसालू ।
का पुत्र रिसालू । २ राजा भोज एवं राजा मान की २ राजा भोज की पुत्री का नाम पुत्रियों का नाम नहीं।
सांमलदे और धारा नगरी के मान कछवाहा को पुत्री का नाम
धारा।
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