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'होरां की सहेलियां हंसा को डार । अदभुत कंवळ वदन सोभा अपार । यु कवळ की पांषडीयां एक बरोबर सोहै । वां सहेलियां में हीरांपरगुरूपी मन मोहै। कीरतियां को झूमको तारा मंडल की शोभा । आफू की क्यारी पोसाष मन लोभा। केसरियां कसुमल घनंबर पाटंबर नवरंग पोसाष राज छै । अतर फुलेल केसरि कसतुरी सुगंध छाजै छ ।' (पृ० १५)
लेखक व्यंग का प्रयोग करने में भी बड़ा प्रवीण है । व्यंग के सहारे दूल्हा और दुलहिन की अनमेल जोड़ी का चित्रण बड़ी ही खूबी के साथ किया गया है; जिसे पढ़ते ही पाठक की सहानुभूति हीरां के साथ हुए बिना नहीं रहती । हीरां के मन की बात हीरां के मुख से सुनिये
_ 'सुणि केसरी, असो षांवंद पायौ छै । कपूर को भोजन काग नै करायौ छै । गधेड़ा रै अंग पर चंदन चढ़ायौ छै । अन्ध के प्रागै दरपण दीषायो छ । गंगे के आगे रंगराग करायो छै । नागरवेल को पान पसु नै चबायो छै ।' (पृ. ५)
लेखक ने जहाँ एक ओर परिमार्जित गद्य का प्रयोग किया है वहाँ कविता को भी सुन्दर सष्टि की है। उसने स्थान-स्थान पर दूहा, सोरठा, गाथा, कुंड. लिया, पद्धरी, झमाल, उधोर, चंद्रायणा, भुजंगप्रयात, छप्पय, त्रोटक, गीत अर्धाली आदि अनेक छंदों का सफल प्रयोग किया है । काव्यकला की दृष्टि से कुछ पद्यांश यहाँ उल्लेखनीय हैं । हीरां की मनोदशा
हीरां मन आकुल भई, मायो लेष अनय । चात्र हीरां चंदसी, केत राहासो कंथ ॥ ३१ ।। फीकै मन फेरा लिया, अंतर भई उदास । आष मीच रोगी अवस, पीवत नीम प्रकास ॥ ३२ ॥
हीरां मद मातुर हुई, चित पीतम की चाह । विषधर ज्यूं चंदन बिना, दिल की मिट न दाह ॥ ४२ ॥
प्यारी पीव प्रजंक पर, कलही उर अवलूंब । मानुं चंदन बृच्छ मिल, झुको क नागणि झूब ।। २१४ ॥
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