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________________ ८२] बात रीसालूरी रहै जासी । तठे सूबौजी कहै-श्रीमाहाराजकुवार ! पा वात जोग छ। थां करतां सारी वात प्रासीण हुसी। . हीव कुवरजी सदारा सदाई परभातरै समै घोड़े चढणे नीकलै। सौ पांच सौ पांच पांच कोस तांई सहिररे गिरदाव घोडौ फैरै । त? कोईक वटांउं निकलै तिननै ल्यावै, हवैली भौलाय देवै । धांन, द्रव्य मोकलौ वतावै । ईण भांतसू वस्ती करवा मांडी। ईण भांतसू वरस इग्यारे हुइ गया छै। थोडीसी सहरमै वसती हुई। पांचसै ५०० घररी जमीत हुई। रांणी वरस ग्यारेमे हुई ।A हिवै हिरण इकदा समाजौगै मृगलो नै कुवरजी वांता करता मृगलौ वोलीयौ-श्रीमाहाराजकुवार ! म्हारा जतन आप घणा करौ छो; षांण दाणारी कुमी कांई न छै । पिण म्हे रोहिरा जिनाव[र] छों । सो रोहिमै फिरनै चारां, पाणी छै तौ प्रा नगरी सारी पाछी वसाय देवस्यां । ज्यूं आपणौ धरतीमै नांमगौ ख. रसाल महील उपर बेठा छ । एहवे एक राषसनु रसालु पावतो दीठो। तीको राष्यस माहाक्रोधवंत, वीकराल, कूड-नेत्र. हाथमे काती छे, इसो दुष्ट राष्यस छ । तीणनु सहोरमे प्रावतो जांणी रसालु दरवाजे पाय उभा रह्या । कमाड जडया। इतरे प्राधी रात्र गयां देत्य प्रायो । कमाड तोड ने भाहे पायो । रसालुए प्रावतो देषी षडगरी दोधी । देतां थकां माथो, धड अलगो जाय पड्यो। जद रसालुए पांच अलगो समुद्रमे नांष दीधो। ग. रिसालु दैतने हल्यौ। देत जाण्यौ । अधरात्रे पाप हल्यो जांणय प्राप दरबारर दरवाजे ऊभा रहा । कमाड़ जड्या छ । रात पोहर दोय गई छ । प्रतरायकमै दैत प्रायो। रीसालुरा हाथमै षडग काढयौ छ। कमाड तोडे देत प्रायो। रीसालुयै जांण्यौ, षडगरी दोधी । माथो अलगो जाय पड्यौ । तदि रीसालु दैतनै अलगौ जाये नांष्यौ। घ. प्रति में न तो उक्त दूहे ही हैं और न इस राक्षस का वर्णन ही है। ___A-A. ख. पछे रसालु महीलां गयो। राणीनु कहै - जीण नगरी उजड कोधी हती, तीणनु आज मे मारीयो। होवे प्रा नगरी सुषे वससी। ईसो सुणीने सर्व राजी हुमा। हीवे सुषे समाधे रहे छ। कस्तुरीयो मृग सूर्य उगां पहीली चरवा जाए छ । पोहर १ दीन चढतां घरे आवे छ । पछे रसालु सीकार जाए छ। दीन पाछलो पोर एक रहे. तरे घरे आवे छ । इम सदा हो रहे । इम करतां रांणी वरस इग्यारेरी हुई। ___ ग. राजी होई राणीने प्राय कह्यो--गाम उजड कोधो छ, तिणीने तो मारचौ छ । अब गांममै बसती करावां । अस्यो मनमै वीचारयो । तदी रिसालुं पोहर दीन चढता सीकार जाये छै पोहर दोन पाछलो रहतां सीकारथी श्रावै छै । घ. रसालु कुंवर सोकार जायै । पालो पोहर रहै जदी पाछौ प्रावै। रांणी वरस पाठरी हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003392
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Dixit
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1966
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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