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________________ [ ४६ बात बगसीरांमजी प्रोहित हीरांकी फुल अपार प्रजंक फब, क्रत परमल डहीकाय । रंगमहिल विलि सरसकै, ऊसत बैठो आय ॥ ३८०' हसत लसत निरषत हरष, सर दो करत सुभाय । हीरां सोभत मन हरत, ऊभी सनमुष आय ॥ ३८१ कला प्रकासत दीपकी, दूणां भासत दीप । रंभा दिषा छबि रूपकी, स्यांमा षडी समीप ॥ ३८२ कहु ता दीनो कुरब, प्रीतम हेत ऊपाय । गादी ढली गलीमकी, ऊपर बैठी प्राय ।। ३८३ मिले कसुबा माजमा, कैफ अपारी कीन । तन मन मिल दोहुं तरफ, ऊमगत पेम अधीन ।। ३८४ पीतम प्यारी सेझ पर, अति छिब प्रेम ऊदार । करत हरष अत केसरी, बारत लूण अपार ॥ ३८५ भांमण प्यारी अंक भर, पीतम परस प्रजंक । बंक सरीर बिलासमै, लसत कबुतर लंक ।। ३८६ पीतमकै उर सेझ पर, चंदमुषी चिपटत । मानु भादवै मासकी, लता ब्रछ लपटत ।। ३८७ अर्क्ली -प्रीतम प्यारी पेम पर, सरस थाहत पेम अथाग । सर[रस] लुटत रत रंगको, प्यारी पीतम सेज ॥ . चंदना नागनसीं चपर, ऊलही दुलही रेम (ज) ॥ ३८८ प्यारी छ अत प्राणकी, राष प्रीतम रीत । रंगमहिल बिलसण रमण, प्रतदन इधकी प्रीत ॥ ३८६ छप्पै- रति बिलास अनुराग करत निसदन कैतूहल , सुष सज्या सुषमादि महल मांणंत दंपत मल । समै सार सिंगार रिसकै झला मंन राजत , मास मास रुत मिलत सुष अांनंद समाजत ।। सरसंत बडारणि केसरी, रहत निरंतर प्रीत रत , हीरां प्रीत हुलासकी, चली बात प्रोहित-चिरत ।। ३६० दोहा- वात सही यण विधि बणी, जिण बिधि सुणी जणाय । कबी तेण इण बिधि कही, इण विधि हीरां प्राय ।। ३६१ कहूँ छंद चंद्रायेणा, कहुं छपै सोरठा कीन । कहुं कुंडलिया बारता, दुहा प्रगट धर दीन ।। ३६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003392
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Dixit
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1966
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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