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बात बगसीरामजी प्रोहित हीरांकी
सुभ सीतकाल सकल, गरम ऊरज वामांगना , प्यारी प्रोहित ऊर लय करी सिध मंन कामना ॥ २६०
अथ वसंत रति बरणन ऊसन धरण आकास उसन चल पवन असंभवै , जल थल व्याकुल जीव पुन मंग देत निरषिवै । प्यारी प्रीतम परस चंदन चरचित केसर मलत , ........"कपुर अवर किसतुरी अरचित ।
छुटत फवारा कुसमाद छबि, अति सुगंध छिडकत अवर।
सुष समाज प्रोहित सरस, प्यारी हीरां महल पर ॥ २६१ दोहा- यण प्रकार प्रोहित अठ, तन काल सुष ताम ।
नीत नबीन प्यारी नरष, हरषित पूरण हाम ॥ २६२ रसक बृतीकी सीत रुत, हीरां परम सुहाग ।। अब बसंत आई ऊमग, फबते होरी फाग ।। २६३ तरवर पत चंदण त, वा सरवर मानसोरोर । छव रुत पतंकि यधकं छवि, यू बसंत रुत और ।। २६४ अपछरमैं और न यसी, रंभा छबि सारीष । षटरुतमैं नही पेषजे, रति बसंत सारीष ।। २६५ राजत ईधक वसंत रुत, तरवर मंजरि ताब । बहै रत पवन सुगंधवर, गहै रत फूल गुलाब ।। २६६ बन उपबन फूलत बिषम, कवल फूल जल कीन । मन मोहत फुलवाद मिल, निरमल फूल नवीन ॥ २६७ कंज प्रफुलत सोभ कर, निरमल पुजत नीर । रंजत मधुर सुगंध कच, गुंजत भवर गहीर ।। २६८ प्रांबा पोहो रत छबि अधिक, निरषत सोभ नवीन । लालत मोनत स्वर लता, कोयल षग धुन कीन ॥ २६६ मांनत फूल सुगंध मिल, सीतल मधुर समीर । वन ऊपवन पंछी बिमल, कलरव कोकल कीर ।। ३००
होली का ध्याल वरनन हीरां मनमैं अति हरष, सोहै प्रोहित संग । अभैराम देवर अवर, रमत फाग रस रंग ।। ३०१ अवर त्रिया मिल येकठी, गावत होली गांन । ऊडत गुलाल अबीर अत, अरंण भयो असमांन ॥ ३०२
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