________________
(१४)
फिर राणियों और अन्य नगर की रमणियों के रूप का वर्णन, बनखंड, पाराम, उद्यान, महल प्रादि के वर्णनों के साथ साथ छः ऋतुषों, उत्सवों और क्रीड़ानों मादि का वर्णन भी कविगण अपने काव्य में अवश्य ही करते हैं। सुकवि वर्णन-योग्य प्रसंगों को कभी खाली हाथ नहीं जाने देते, जिससे काव्य में सजीवता सरसता मा जाती है और श्रोता एवं मध्येता विविध रसों का पान कर निमग्न हो जाते हैं। पद्य ग्रन्थों की भांति गद्य काथ्यों (कादम्बरी, तिलकमंजरी मादि) में भी स्थान-स्थान पर वर्णनों की छटा देखते ही बनती है। कहीं-कहीं तो वर्णन बहुत ही घमस्कारिक एवं कलापूर्ण पाये जाते है।
कई ऐसे स्वतंत्र ग्रन्थ भी भारतीय-साहित्य में पाये जाते हैं। जिनका उईश्य केवल वर्णन करने का ही होता है । ऋतुसंहार प्रावि ऐसे ही काम्य है। कतिपय ऐसे संग्रह-पन्य भी उपलब्ध हैं जिनमें भिन्न भिन्न वस्तुपों के वर्णन सं होत मिलते हैं। उनके वर्णनों का उपयोग दूसरे पम्प प्रणेता अपनी रुचि के अनुकूल बटा बनाकर स्वरचित प्रमों में कर लेते हैं। कथा-परिक मादि अन्यों में स्थान-स्थान पर ऐसे सजीव वर्णन जुर जाने से उसकी शोभा बहुत अधिक बढ़ जाती है।
संस्कृत-प्राकृत की भांति लोक-भाषामों में भी ऐसे वर्णनात्मक ग्रन्थ समय समय पर रचे गये हैं । मैथिली भाषा का "वर्ण रत्नाकर" अन्य इसी प्रकार का है। यह डा. सुनी तिकुमार चाटुा प्रौर बाबू मित्र द्वारा संपादित हो कर एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता द्वारा सन् १९४० में प्रकाशित हुआ था। यह १५ वीं शती की रचना है और इसमें भेद-प्रभेद रूप वर्णन ही अधिक है। संजीव कथात्मक महत्वपूर्ण वर्णन ग्रन्थ सं.१४७८ में माणिक्यसुग्गरसूरि रचित पृथ्वीचंद चरित्र है । लोकभाषा में वर्णनों का ऐसा सुन्दर · संदर्भ प्रन्थ पन्य नहीं है। इसका सार्थक व पर नाम "वाग्विलास" रपिता ने स्वयं रखा है। क्योंकि पृथ्वीचन्द्र के परिण की अपेक्षा इसमें वाग्विलास रूप चमत्कारिक वर्णनों की ही प्रधानता है। पाठकों को इसकी जैली का रमास्थाव कराने के लिये दो बार उदाहरण नीचे दिये जाते हैं। वर्षाकाल बर्णन"विस्तरिउ पर्षाकाल, जे पंथी तणउ काल, माठ दुकाल । जिगिइ वर्षाकालि, मधुर ध्वनि मेह गाजर, दुभिभ तणा भय भागह, जाणे सुभिक्ष भूपति प्रावता जय डबका बाजा। चिहं दिशि वीज झलहलइ, पंथी पर भरणी पुलइ । बीपरीत भाकाश, चन्द्र सूर्य परियास । गति धारी, लवई तिमिरि । उत्तर नऊ उनयण, छाया गयण । दिसि पोर, नाचई मोर । सधर वरसइ धाराधर । पाणी तणा प्रवाह खलहला, वाड़ी ऊपर वेला वलइ । चीखलि चालतां सकट स्खलई, लोक तणा मन धर्म ऊपरि क्लइ । नदो महा पूरि प्रावई, पृथ्वी पीठ जावई'। नका किसलय गहगहई, वल्ली वितान लहलहइ ।
कुटुम्बी लोक माचह, महात्मा बैठा पुस्तक वाचई। पर्वत तउ नीझरण विटइ, भरिया सरोवर फूटइ ।
इसिई वर्षाकालि । १. कविवर सूरचन्द्र के 'पदैक विशति ' कथा-संग्रह अन्य की अपूर्ण प्रति हाल ही में मुनि श्रीजिनविजयजी से अवलोकन को मिली है। मूल ग्रन्थ संस्कृत में है, पर स्थान-स्थान पर सुन्दर वर्णन राजस्थानी गद्य में दिये हैं । वे कवि के स्वयं रचित भी हो सकते हैं, पर कई वर्णन अन्य प्रान प्रतियों वाले भी हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org