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________________ कतिपय वर्णनात्मक राजस्थानी गद्य-ग्रन्थ बाक-शक्ति मनुष्य को दी हुई प्रकृति की विशेष देन है । वैसे तो नेत्रधारी सभी प्राणी सभों और घटनाओं को निरंतर देखते ही रहते हैं, पर मनुष्य का देखना उनकी अपेक्षा बहुत महत्व रखता है । देखने के पीछे अनुभव करने की विशेष भक्ति आवश्यक है और वह केवल मानव को ही प्राप्त है । इतर प्राणी उन्हें देख भर लेते हैं, पर जैसा अनुभूतिपूर्ण वर्णन मानव कर सकता है अन्य कोई भी प्राणी नहीं कर सकता । वस्तुओं का ज्ञान कर लेना एक बात है और अपने अनुभव को सुन्दर एवं साकार रूप में दूमरों के समक्ष वाणी द्वारा उपस्थित करना दूसरी बात है । किमी भी बात का वर्णन करते समय श्रोता के सामने उसका चित्र-सा उपस्थित हो जाय-यह वर्णन करने की विशेष कला है। वैसे रसीले 4 चमत्कारपूर्ण वाक्य लिपिबद्ध हो जाने पर वे साहित्य की संज्ञा पाते हैं। भारतीय प्राचीन साहित्य में वर्णन करने की विशेष छटा स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है । कहीं कहीं तो निरूपण शैली इतनी सजीव होती है कि पढ़ने और सुनने वाले बरबस प्राकर्षित हो कर मंत्र-मुग्ध से हो जाते हैं । यह वर्णन-शैली कई प्रकार की होती है । किसी में वस्नु के बाह्य रूप की, किसी में भीतरी गुणों की, और किसी में भेद-प्रभेदों के विस्तृत विवरण की प्रधानता होती है। किसी किसी रचना में भाषा का चमत्कार देखते ही बनता है । मम्मों का चयन बड़ा सुन्दर होता है और वर्णन गय में लिखे जाने पर भी (तुकान्त होने से) पढ़ने वाले को पचका सामानन्द मिलता है। संस्कृत में गद्य-काम्य में जिस प्रकार लंबे-लंबे समास प्रधान होते हैं उसी प्रकार लोक-भाषा के वर्णनात्मक गव-ग्रन्थों में तुकान्त शैली बहुत विस्तुत पाई जाती है। इसमें एक के बाद एक दुकान्त शब्द ऐसे सुन्दर एवं सहज ढंग में सजाये जाते है कि मानों मोतियों को चुन चुन कर माला ही पिरो डाली हो । सहृदय पाठक व श्रोता उस तुकान्त शब्दावली प्रौर वर्णन-शैली का नमस्कार देख कर मानव विभोर हो उठते हैं और लेखक के प्रति बरबस उनके मुंह से 'बाह वाह', 'खूप.बूब' शम्ब फूट निकलते हैं। प्राचीन नामों का अध्ययन करते समय प्राज से ढाई हजार वर्ष पूर्व की वर्णन शैली का पन्छा पता चलता है । भेद-प्रभेदों का विवरण देने वाले स्थानांग, समवायांग प्रश्न-व्याकरण पारि पागम तो मानार्धक है ही, पर उबवाई मूत्र जैसा कई ग्रन्थों में वर्णनों को मच्छी बहार है। उपवाई सूत्र में चम्पानगरी, पूर्णभद्र चैत्य, बनखंड, अशोक वृक्ष, महाराजा श्रेणिक, के पुत्र मंथसार (कोणिक-प्रजात शत्रु), धारणी राणी, भगवान् महावीर का प्रागमन, समवसरण महाराजा कोणिक का वंदनार्थ गमन, श्रमणों की तप साधना प्रादि का प्रच्छा वर्णन है । इसी प्रकार अम्प जैनागमों में भी प्रसंगानुरूप अनेक प्रसंगों के सुन्दर वर्णन पाये जाते हैं। जैसे कल्पसूत्र में भगवान् महावीर की माता चौदह स्वप्न देखती है-उनका विस्तार से वर्णन मिलता है इस संबंध में स्वतंत्र लेख द्वारा प्रकाश डाला जायगा प्रतः लेख-विस्तार भय से यहां उदाहरण नहीं दिये जा १४ परवर्ती संस्कृत काव्य प्रादि ग्रन्थों में प्राचीन वर्णनशैली को और अधिक आगे बढाया गया है । जैसे देश वर्णन, नगर वर्णन, हाट बाजार वर्णन, राजा और राज सभादिक का वर्णन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003390
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarottamdas Swami
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1997
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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