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________________ (१२) जावसी न प्राग माथे चहराने च जावसी । सावरण प्रायां घरे यारे हींदा जिको घालेला । हीदिया छ तो परियां धोके परियो खांच जादेला। कंवल उरवसी प्रात भातमें कहात । परस्थानी परियों सी सहेल्यों ले माथ । जरकस वट जेवर मलामल के जोत । हेरी जात चारों पोर चानणी सी होत ॥ छुद्रघण्टा बिछियोंका छुटे छण छणाव । ज्यों हंसे बच्चोंकी बारणीका बणाव।। जां झरूका झरणकार व्है जोरें पर जोर । सावरणके मौसम ज्यों झिल्ल्योंका शोर । फबरणी में अनुरागमें प्रगणितके फैल | गुम्मजके महल पाई मिजाजोंके गेल ॥६३॥" प्राधुनिक शैली के गद्यकाव्य की परम्परा भी राजस्थानी भाषा में चालू है। यहां कविवर कन्हैयालालजी सेठीया के गद्यकाव्यों के हो उदाहरण देखिए - "प्रासोजगे महीनू । नान्हींसी'क एक बादली प्रोसरगी। रेवड़ बालरो अलगोजी गूज उठ्यो । रिमझिम-रिमझिम मेवलो बरसै । प्रतैमें ही प्रचारण चूको पूनरो एक लहरो प्रायो पर बादली उड़गी । करड़ी ताबड़ी निकल पाई । खेतमें निनाण करतो करसो बोल्यो-प्रासोगारा तप्या तावड़ा काचा लोहा पिण गलग्या-'मिनखरी जबानमें कई पल कोनी' । बादलवाईरो दिन । मधरो मधरो प्राथणु बायरो चाके । खेजड़ी पर बैठी कमेडी बोली-'टमरकटू'। __ नीचे छियांमें सूतो मिनख सोच्यो किस्योक सोवणू पंखेल है ? प्रतेमें ही कमेसी बीड करी-सीधी प्रा'र मिनखरे ऊपर पड़ी मिनख मुझला'र बोल्यो-किम्योक नवजात जीव है ?" हिन्दी भाषा में तो राजस्थान के कई विद्वानों ने अनेकों गद्यकाव्यं लिखे हैं, जिनमें ठाकुर राममिहजी (बीकानेर), भंवरमल सिंधी (जयपुर), दिनेशनन्दिनी गलमिया (उदयपुर), मादि प्रधान हैं । श्रीयुत् कन्हैयालालजी सेठिया का मातृभाषा का प्रेम विशेष उल्लेख योग्य है। हिन्दी के अच्छे कवि होने के साथ इन्होंने राजस्थानी भाषा में भी समय-समय पर बहुत सुन्दर रचनाएं की । इनके राजस्थानी के गद्यकाव्यों का संग्रह 'पाखडल्या' के नाम से शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है। -श्री अगरबन्द नाहटा Jain Education international Jain Education International For Private & Perse For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003390
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarottamdas Swami
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1997
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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