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________________ (१०) कीरत राजते है । घोड़े फिरते हैं । पायक पड़ते हैं। गुणी जरा राग पटता है। वह वषत वणता है। सोभा बणती है । श्री दिवाण पधारते हैं। दुसमण को जारते हैं। देसों दूर डरते हैं । साहो काम सरते हैं। कवीसुर बोलते हैं । भरणा षोलते हैं। . कामका सूरत । जेतला दिहाड़ा तेतला प्रवाड़ा। जग जेठराम नरसिंह जेत. कवि मालीदास कहै दवावेत । दूसरी दवावेत जैनाचार्य जिनलाभसूरिजी की है जिसे याचक विनयभक्ति (वस्तुपाल) ने १९ वीं सदी के प्रारम्भ में बानायी है। इससे पूर्ववर्ती जैनाचार्य जिनसुख सूरिजी की दवावेत उपाध्याय रामविजय ने संवत् १७७२ में बनायी थी । इसका दूसरा नाम 'मजलस' भी है । दोनों दवावेतों के उद्धरण नीचे दिये जा रहे हैं - "अहो प्रावो वे यार बैठो दरबार । ए चांदणी रात, कही मजलीसको बात । कही कोरण कौंण, मुलक कोण कोण राजा देष, कौंण कौंण पातिस्या देष कौंण कौंण दईवांन देष, कौंग कौंण महिवान देष । तो कहे दिल्ली दईवान फररुष्साह सुलतान देष । चित्तोड़ संग्रामसिंघ दईवान देष । जोधाण राठौड़ राजा प्रजीतसिह देषे। बीकाणराज सूजाणसिंघ देष । प्राबेर कछवाहा राजा जयसिंघ देषे । जेसाण जादव रावल बुघसंघ देषै । ए कैसे हैं- वडे सु विहान हैं, बडे महिर्वान हैं, बड़े सिरदार हैं । वडे बूझदार हैं, वडे दातार हैं । जमी प्रासमान वीच संभू अवतार हैं। प्राचार्य श्रीजिन सुखसूरि का वर्णन करते हुए लिखा गया है - _ "दुस्मन् दूर है, सब दूनीमें हुक्म मंजूर है। मगरूरांकी मगरूरी दफै करते हैं, छत्र धारीकी सी गैंस धरते हैं। बड़े-बड़े छत्रपति गढ़पती देसोत डंडौंत करते हैं, चिकारे मुकारे भुज मरते हैं। (और) भी कैसे हैं- गुनुनके गाहक हैं, गुनुके जान हैं, गुनुके कोट है, गुनुके जिहाज हैं विजजिनराज है । षट्दर्शनके महाराज हैं सब दुनियां बीच जस नगारेकी अवाज है।" . जिनलाभसूरि - दवावेत उपयुक्त दवावेत से चौगुनी बड़ी है । इसमें कुछ पद्य य गीत भी सम्मलित हैं । यहां वचनिका-संशक गद्य काव्य के भी कुछ उद्धरण दिये जाते हैं।" 'फिरि जिनुका जसका प्रकास मनु हसका सा विलास, विधु हरजूका हास किधु सरद पुन्युका सा उजास । फिर जिनुका रूप अति ही अनूप मनु सब रूपवतुका रूप, जाकु देव्यै चाहे सुरनके भूप कामदेवका सा अवतार । किधु देवका सा कुमार, तेज पुज की भलक मनु कोटिन सूरन को जलक ।" उपर्युक्त दोनों दवावेतों में फारसी शब्दों का प्राचर्य है, क्योंकि इन दोनों की रचना सिन्ध प्रांत में हुई है। पंजाब और सिन्ध की भाषा में उस समय फारसी शब्दों का बाहुल्य था। २० वीं शताब्दी की रचनाओं में 'शिखर वंशोत्ात्ति' नामक ऐतिहासिक काव्य संवत १९२६ में कविया गोपाल ने बनाया, जिसे पुरोहित हरिनारायणजी ने सम्पादित कर काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित किया है । इसका अपर नाम 'पीढी वार्तिक' भी है । इसका प्रधान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003390
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarottamdas Swami
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1997
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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