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________________ इसी समइयो वरण रह्यो छ, बरखा मंडनै रही छ। बिजलो झिलोमिल कर ने रही है, बादलों झड़ लायो छ । सेहरा-सेहरा वीज चमक नै रही छ। जाणे कुलटा नायक घरसूनीसर अंग दिखाय दूसर घर प्रवेस कर छ । मोर कुहकै छ, डेडरा डहकै छ । भाखरारी नाळा बोल नै रह्या छ। पाणी नाडा भर नै रह्या छ, चोटडियाल उहक नै रही छ । बनसपतीसू वेला लपट नै रही छै । परभातरी पोर छ । गाज-प्रावाज हुय न रही। जाणे घटा घणं हरखसू जमीसू मिलण पायी छ। इस वखत समइय में गंगेव नीबाबत बोल छ, मनरी उमंग खोल छ । सला-सिकारांरो दुवा हुवो छ । "तठा उपरांति करि नै राजांन सिलामति हमें आगे वसंत रितरा वणाव बखाणीज छ, दखिण दिसा मलयाचल पहाडरी पर्वन वाजिनो छ । सीत मंद सुगन्ध गति पर्वन मतवाला मंगल ज्यू परिमल झोला खावती बहे छ । अढ़ार भार वनसपती मकरंद फूलादिरा रस माणतो थको वहे छ । अंबर मोरीजे छ . कूपला फूटीज छ । वरणराइ मंजरी छ । वासावली फूटि रही छ । केसू फूलि रहिया छ । रितिराजप्रगटियो छ । वसंत पायो छ । भमर मधुकर झंकार करी रहिया छ। मधुरी वाणीरा सुर करि कोकिला बोलि रही छ । बार बगीचा दरखत गुलकारी झिलि फूल रही छ ।” सं० १७८८ के लगभग रतवीरभारण कृत 'राजरूपक' ग्रन्थ राजस्थानी भाषा का एक वृहद् ऐतिहासिक काव्य है, जिसे पंडित रामकरणजी प्रासोपा ने नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित कराया है । इस ग्रन्थ में कई जगह वार्ता का भी प्रयोग हुआ है। यहां उसका एक उदाहरण दिया जा रहा है । इसमें प्रौरंगजेब का वर्णन है "औरंगसा पातसा पासुर प्रवतार, तपस्याके तेज पुज एक से विस्तार । मापका विहाई सा प्रतापका निदान, मारतंड मागे जिसी जोतसी जिहांन । जापका पैगंबर प्रापका दरियाव, तापका सेस ज्वाल दापका कुरराव । सकसेका जैतवार प्रकसेका वाई, परिदल समुद्र पाए कुभज के भाई । रहणी में जोगेश्वर वहणी में जगदीस, ग्रहणी में सिवनेत्र सहरणी में ग्रहोस । जाके जप तप प्रागे ईश्वर प्राधीन, ताकू छल बोह बल कुरण कर हीन । १८ वीं शताब्दी में ही दवावंत-संशक दो रचनाएं प्राप्त हुए हैं, जिनमें से पहली रचना 'नरसिंहदास गौड़ की दवावंत' भाट मालीवास-रचित है । इसकी प्रति अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में १८ वीं शताब्दी पूर्वाद को लिखित प्राप्त हुई है। मादि-अन्त के उदाहरण इस प्रकार हैप्रावि-"हीदवाण छात हीदवाण मूर, अजमेर जोधपुर माण पूर, पजवाल बंस प्रस गांव मरोड़, ढीलड़ी बीच महिपत्यां मोड़।" अन्त-"रंग छहरते हैं । कपड़े पहरते हैं। तोसक सील्यावता है । हजूरी पावता है । चढ़ते उतरते पाव दे सलाम करांवदे है। जरबफत पाटता है । अम्बर फटते हैं । सभा विराजती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003390
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarottamdas Swami
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1997
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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