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सिद्धि किसे अभीष्ट नहीं है ?- सभी को इष्ट है । यह आत्मसिद्धि महात्माओंकी स्तुति द्वारा होती है। और महात्माओं के लिये यह कोई नियम नहीं है कि वे अमुक पंथ या समुदाय में ही उत्पन्न हुआ करते हैं और यह भी कोई प्रतिबंध नहीं है कि अमुक मतानुयायी अमुक ही महात्माओं की स्तवना करें। जैसे गंगा किसी के बापकी नहीं है-लब ही उस के अमृतमय जल का पान कर सकते हैं-वैसे महात्माओं भी किली के रजिष्टर्ड नहीं किये हुए हैं सब ही मनुष्य अपनी अपनी इच्छा अनुसार उन के गुणगान कर अपनी उन्नति कर सकते हैं । इस लिये मैंने-खरतरगच्छानुयायी हो कर भी-अपनी जिह्वा को पवित्र करने के लिये तपागच्छ के महात्मा श्रीविजयदेव. सूरि और ( उनके शिष्य ) विजयसिंहसूरि का यह पवित्र चरित्र लिखा है । इस विषय में किसीको उद्वेगजनक विकल्प करने की जरूरत नहीं है । वाह ! कैसी उदार दृष्टि और कैसा गुणानुराग । यदि केवल इन ही ३ पद्यों का स्मरण और मनन हमारा आधुनिक जैन समाज करें तो थोडे ही दिनों में वह उन्नति के शिखर पर आरूढ हो सकता है। शासनदेव वह दिन शीघ्र दिखावे।
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