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________________ ८३ वें पृष्ठ की फुटनोट में आया है ) का सविस्तर जीवनचरित्र वर्णन किया गया है | ( ध्यान में रहे कि चरित्रनायक और चरित्रलेखक दोनों समानकालीन है और विजयदेवसूरि, अपने महात्म्य के निर्माण समय में विद्यमान थे । ) उस समय परस्पर सांप्रदायिक विरोध इतना बढा हुआ था कि एक गच्छ वाले दूसरे गच्छ की प्रतिष्ठित व्यक्ति के गुणानुवाद करने तो दूर रहे परंतु श्रवण में भी मध्यस्थता नहीं दिखला सकते थे । अर्थात् तपागच्छ वाले खरतरगच्छीय व्यक्ति के प्रति अपना बहुमान नहीं दिखा सकते थे और खरतरगच्छानुयायी तपागच्छ के प्रसिद्धपुरुष की प्रशंसा करते दिलमें दुःख मनाते थे । ऐसी दशा में खरतरगच्छीय एक विद्वान् उपाध्याय के द्वारा तपागच्छ के एक आचार्य के गुणगान में बड़ा ग्रंथ लिखा जाने वाला काम अवश्य आश्चर्य उत्पन्न करता है । समाज की यह विरोधात्मक प्रकृति, श्रीवल्लभ पाठक के ध्यान से बहार न थी । वे इस बात को अच्छीतरह जानते थे कि मेरे इस - भिन्नगच्छ के आचार्य की प्रशंसा और स्तवना करने वाले ग्रंथ के लिखने रूपकार्य से बहुत से दुराग्रही स्वसांप्रदायिक असंतुष्ट हो कर मुझ पर कटाक्ष करेंगे । इस लिये इन्हों ने ग्रंथ के अंतमें, संक्षेप में परंतु असरकारक शब्दों में लिख दिया है कि 1 -- د यदन्यगच्छप्रभवः कविः किं मुक्त्वा स्वसूरिं तपगच्छसूरेः । कथं चरित्रं कुरुते पवित्रं शक्यमायैर्न कदापि कार्या ॥ आत्मार्थसिद्धिः किल कस्य नेष्टा सा तु स्तुतेरेव महात्मनां स्यात् । आभाणकोऽपि प्रथितोऽस्ति लोके गंगा हि कस्यापि न पैतृकीयम् ॥ तस्मान्मया केवलमर्थसिद्धयै - जिह्वा पवित्रीकरणाय यद्वा । इति स्तुतः श्री विजयादिदेवः सूरिस्समं श्रीविजया दिसिंहैः ॥ अर्थात् - अन्य ( खरतर ) गच्छवाला कवि अपने गच्छ के आचार्यको छोड कर तपागच्छ के आचार्य का चरित्र कैसे बनाता है, यह शंका विद्वान् मनुष्यों को न लानी चाहिए। क्योंकि आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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