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सद्भाग्यधेयमतिमत्प्रतिवाद्यजेयाः । श्रीज्ञानसुन्दरसुधी-जयवल्लभाया
वाग्देवताप्रतिमसत्प्रतिभाप्रधानाः ॥ १८ ॥ श्रीज्ञानविमलपाठकसत्पदाम्भोजचञ्चरीकेण । श्रीवल्लभेन रचिता शिलोच्छशास्त्रे शुभटीका ॥ १९ ॥
इन श्लोकों का तात्पर्य केवल यह है कि जिनराजसूरि के शिष्य जयसागर उपाध्याय हुए। उन के शिष्य रत्नचंद्र उपाध्याय और उन के शिष्य शास्त्रों के कर्ता ऐसे भक्तिलाभ उपाध्याय हुए । भक्तिलाभ के शिष्य चारित्रसारादि और उन के शिष्य भानुमेरु आदि हुए । भानुमेरु के दो शिष्य थे-१ ज्ञानविमलपाठक और २ तेजोरंगगणि । ज्ञानविमलपाठक के विद्वान् और विनयवान् ऐसे ज्ञानसुंदर, जयवल्लभ और श्रीवल्ल नाम के शिष्य हुए जिन में से श्रीवल्लभ पाठक ने इस ग्रंथ की रचना की । यदि इनका वंशवृक्ष बनाया जाय तो प्रकार होगा। (देखो सामनेका पृष्ठ । )
* इन के लिये लिखा गया " प्राकृतव्याकरण" नाम का ग्रंथ पाटन के संघ वाले भाण्डागार में है जिस पर यह लिखा हुआ है
सं. १५३२ वर्षे श्रीजयसागरमहोपाध्यायशिष्यरत्नचंद्रोपाध्यायराजानामुपदेशेन शिष्यभक्तिलाभाय [पठनार्थं] स्तंभतीर्थवास्तव्य श्रीमालवंशे फोफलियागोत्रे श्रे० वाछा भा० देल्हू पुत्र लाषाकेन भार्या लीलादे पुत्र जागा जेसिंघादिपरिवारेण स्वपुण्यार्थ लिखापितं ॥
इन का बनाया हुआ कोइ ग्रंथ अभी तक मेरे देखने में नहीं आया। जैनग्रंथावलि (पृष्ठ २९८) में भक्तिलाभ का बनाया हुआ " बालशिक्षा व्याकरण" लिखा है और वह जेसलमेर की टीप में बताया गया है। संभव है कि वह इन्हीं का किया हुआ हों।
। चारित्रसार के पढनेके लिये लिखे गये “ शशधर नामातर्कग्रंथ " ( जो पाटन के सेठ हालाभाई के भांडार में संग्रहीत है ) के अंत में इस प्रकार उल्लेख है
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