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________________ दीक्षा स्वीकार की होगी। क्रम से इन्हों ने शास्त्राभ्यास में उत्तरोत्तर अच्छी प्रगति की और थोडे ही समय में ऊंचे दर्जे के विद्वान् बन गये । 'पृथ्वीचंद्र चरित्र' की प्रशस्ति में स्वयं जयसागरजी ने लिखा है कि गणि रत्नचंद्र की सहायता से यह कार्य सफलता को पहुंचा है । (देखो ऊपर पृष्ठ ७३). योग्यता और अवस्था को प्राप्त होने पर पीछे से इन्हें भी गच्छपति की ओर से उपाध्याय पद समर्पित किया गया था। उपा. ध्याय पद बहुत कर के जिनभद्रसूरिने दिया होगा। क्यों कि, इन के विषय के जितने उल्लेख, इस पद विशिष्ट, मिले हैं उन में सब से पहले की साल १५२१ की है* इस लिये १५२१ के पहले और १५१५ के पीछे अर्थात् इन ७ वर्ष के बीच में-इन्हें उपाध्याय पद मिला होगा और इस समय गच्छपति जिनचंद्रसूरि ही थे इस लिये उन्हीं के द्वारा वह दिया गया होने का अनुमान मिथ्या नहीं होगा । इन की संतति का संतान दीर्घ काल तक चला और उस में अनेक अच्छे अच्छे विद्वान् हुए । १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में खरतरगच्छ में श्रीवल्लभ नाम के जो उपाध्याय और प्रसिद्ध ग्रंथकार हो गये हैं वे इन्हीं की संतति में से थे। श्रीवल्लभ ने, हैमलिंगानुशासनदुर्गपदवृत्ति, अभिधानचिन्तामणिव्याख्या, शिलोञ्छव्याख्या, विजयदेवमहात्म्य इत्यादि अनेक ग्रंथों की रचना की है। शिलोञ्छव्याख्या के अंत की प्रशस्ति में इन्हों ने अपनी गुरुपरंपरा इस प्रकार लिखी है: * यह उल्लेख, पाटन के वाडीपुर-पार्श्वनाथ के भांडार में " सिद्धहैम व्याकरण" की पुस्तक है उस पर किया हुआ है । यथा सं० १५२१ वर्षे शीरोही वास्तव्य उकेशवंशीय मारहूगोत्रीय साह सहसा भार्या सोनलदे पुत्र साह ईला सुश्रावकेण भ्रातृ सेला चांपा पुत्र पद्मा जिनदास प्रमुखपरिवारसहितेन श्रीखरतरगच्छे श्रीजयसागरमहोपाध्यायशिष्य श्रीरत्नचंद्रोपाध्यायानामुपदेशेन श्रीसिद्धहैमलक्षणबृहद्वत्तिकक्षापट्टग्रंथोऽलेखि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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