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देखने से पाठक जान सकते हैं कि ये अच्छे विद्वान् थे । सोमकुंजर नाम के दूसरे शिष्य भी इन्हीं के जैसे विद्वान् प्रतीत होते हैं । वि०त्रि० के पृष्ठ ६१ से ६३ तक में जो द्विव्यंजन, रसनोपमा आदि विविध आलंकारिक पद्य हैं वे इन्हीं के बनाये हुए हैं । जैसलमेर के संभव. नाथ-मंदिर की बृहत्प्रशस्ति भी, जिस का कुछ भाग ऊपर-पृष्ठ ५३
और ५६ पर-दिया गया है, इन्हीं की रचना है । स्थिरसंयम नामक शिष्य के भी किये हुए ६-७ पद्य वि०त्रि० के ६३ वे पृष्ठ पर नजर आते हैं । इन के सिवा +सत्यरुचिगणि, पं० मतिशीलगणि आदि शिष्य, जिन का नाम वि० त्रि० (पृ. १७ ) में हैं, के विषय में कोई उल्लेख-योग्य बात जानी नहीं गई।
प्रसिद्ध शिष्य तथा उनकी संतति । जयसागरजी के शिष्यों में से अधिक प्रसिद्ध शिष्य रत्नचंद्रमा थे। ये वही रत्नचंद्र हैं जिन का जिक्र वि० त्रि० में-पृष्ठ १७, २१ और ५५ पर-क्षल्लक ( नवदीक्षित ) के विशेषण से किया गया है । इस विशेषण से मालूम होता है कि सं० १४८४ के लगभग ही इन्हें
* S. R. Bhandarkar's Report of a Second Tour in Search of Sanskrit manuscripts made in Rajputana and Central India in 1904-05 and 1905-06, P. 66.
__ + सत्यरुचि की प्रार्थना से " पृथ्वीचंद्र चरित्र'"-जिस के प्रशस्ति पद्य ऊपर दिये गये हैं-जयसागरजी ने बनाया था।
॥ इन के अध्ययन निमित्त सं. १५०१ में क्रियारत्न समुच्चय नाम का व्याकरण-विषयक ग्रंथ जयसागरजी ने लिखा था जो आज तक पाटन के भांडार में संचित है । इस पर लिखा हुआ है कि
सं० १५०१ वर्षे पोषशुदि ११ रवौ श्रीखरतरगच्छेशश्रीजिनराजसूरिशिष्याणु उपाध्याय श्रीजयसागराणामुपदेशेन सच्छिष्यरत्नचंद्रपठनार्थ परोपकारधियाऽयं सबीजकः क्रियारत्नसमुच्चयो नामा ग्रंथोऽलेखि ।
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