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________________ इत्यादि गॉवों मे हो कर, हांसलपुर में इस तीर्थाटन की समाप्ति की गई थी। इस यात्रा के स्मरणार्थ भी एक स्तवन उपाध्यायजी ने बनाया है सो भी इस संग्रह में संगृहीत है ( देखो परिशिष्ट नं. २)। जिनभद्रसूरि ने जो ग्रंथोद्धार का महान् कार्य प्रारंभ किया था उस में जयसागरजी का भी पूर्ण हाथ था। इन्हों ने भी अपने उपदेशद्वारा श्रावकों को प्रतिबोध कर कर हजारों पुस्तकों का पुनर्लेखन करवाया था। इन के उपदेश से लिखे गये भी अनेक ग्रंथ पाटन के ऊपर्युक्त भाण्डागार में विद्यमान हैं जिन पर निम्नप्रकार के स्मरणलेख लिखे हुए हैं। ____ संवत् १४ चैत्रादि ९५ वर्षे चैत्रमासे कृष्णपक्षे पंचम्यां तिथौ सोमदिने धवलकपुरप्रत्यासन्नमुफरेपुरग्रामे व्यवहारचूर्णेः पुस्तकं लिखितमिदं । श्रीखरतरगच्छेशश्रीजिनभद्रसूरीणां श्रीआशा पल्लीकोशसत्के श्रीमन्महोपाध्यायजयसागरैलिखापितं ॥ संवत् १४९७ वर्षे खरतरगच्छाधीशश्रीजिनराजसूरि शिष्य श्रीजयसागरोपाध्यायोपदेशेन सा. सरवण भार्या सियाणी तत्पुत्रिकया श्रीजिनधर्ममामकर्पूरचूरवासितहृदयया फुल्लूश्राविकया शास्त्रमिदं लेखयां चक्रे श्रीपत्तने वाच्यमानं चिरं नंदतु ॥ * शिष्य-समूह । - जिनभद्रसूरि की तरह जयसागर उपाध्याय के भी अनेक शिष्य थे और विद्वान् भी बहुत से थे। विज्ञप्तित्रिवेणि से मालूम होता है कि इन के प्रथम शिष्य पं. मेघराजमणि थे । यद्यपि इन का बनाया हुआ कोई ग्रंथ मेरे देखने में नहीं आया तथापि विज्ञप्तित्रिवेणि में (पृष्ठ ४३-४५) नगरकोट्ट के आदिनाथ भगवान् की स्तवनानिमित्त २४ काव्यों का हारचित्रबंध-स्तोत्र जो इन का बनाया हुआ है उस के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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