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________________ अपि च नगरको? देशजालन्धरस्थे प्रथमजिनपराजः स्वर्णमूर्तिस्तु वीरः। खरतरवसतौ तु श्रेयसां धाम शान्ति स्त्रयमिदमभिनम्याह्लादभावं भजामि ॥ १८॥ आनन्दाश्रुजलाविले मम दृशौ जाते चिरोत्कण्ठया दिष्टया कङ्कटकस्थितः प्रथमतो दृष्टो यदादिप्रभुः । तत्कि साऽपि सरस्वती स च गुरुनूनं प्रसन्नो यतो जिह्वा तद्गुणवर्णनादभिनवान्नाद्यापि विश्राम्यति ॥ १९ ॥ श्रीगोपाचलतीर्थे शान्ति, कोटिल्लके परं पार्श्वम् । नन्दनवन-कोठीपुरपूज्यं प्रणमामि वीरमहम् ॥ २० ॥ एते तेषु सपादलक्षगिरिषु प्रत्यक्षलक्ष्याः खलु क्षेमा एव मया चतुर्विधमहासङ्घन चाभ्यार्चिताः । प्रायः काञ्चनकुम्भशोभितगुरुप्रासादमध्यस्थिताः सान्द्रानन्दपदं दिशन्तु मम ते विश्वत्रयस्वामिनः ॥ २१ ॥ इस के सिवा इस संग्रह में एक और स्तवन है जिस में खास नगरकोट्ट ही के चैत्यों का वर्णन है ( देखो परिशिष्ट नं. १)। संवत् १४८७ के वर्ष में इन्हों ने उत्तरगुजरात और सौराष्ट्र के सब तीर्थस्थलों की यात्रा की थी। इस यात्रा का प्रारंभ पाटन ( अणहिल्लपुर) से हुआ था और वडली, रायपुर, महसाणा, कुंयरगिरि (जिसे आज कल “कुणगेर" कहते हैं ), सलखणपुर (संखलपुर ), धंधूका आदि स्थानों में हो कर शत्रुजयतीर्थ की यात्रा की गई थी। वहां से फिर तलाझा, दाठा, घृतकल्लोल, मेलिगपुर, अजाहर, दीव, ऊना, कोडि. नार, प्रभासपाटण, चोरवाड, घेरावल, और मांगलोर आदि स्थानों के जिनमंदिरों की यात्रा कर गिरनार तीर्थ के दर्शन किये गये थे । गिरनार से वापस गुजरात का रस्ता लिया गया और बल दाणा चूडा, राणपुर, वीरमगाम, मांडल, सीतापुर, पाटरि, झिंझूवाडा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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