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________________ 'संदेहदोलावलीलघुटीका'' उपसर्गहरस्तोत्रवृत्ति', 'गुरुपारतंत्र्यवृत्ति' आदि और भी छोटे बड़े अनेक ग्रंथों की इन्हों ने रचना की है। जुदा जुदा तीर्थकरों, तीर्थक्षेत्रों और प्राचीन ऋषिमुनियों के गुणानुवाद करने वाले ऐसे प्राकृत, संस्कृत और प्रचलितदेशभाषा में अनेक प्रकार के स्तवन-स्वाध्याय भी इन के बनाये हुए उपलब्ध होते हैं । प्रवर्तकजी महाराज के शास्त्रसंग्रह में एक प्राचीन (अधुरी) पुस्तक है जिस में इन की ऐसी बहुतसी कृतियों का एकत्र संग्रह किया हुआ है । इस संग्रह में एक "तीर्थराजीस्तवन" है जिस में उन सब तीर्थों का उल्लेख है जो इन्हों ने फिर फिर कर उनके दर्शन किये थे। फरीदपुर से सं. सोमा के संघ के साथ जा कर नगरकोट्ट वगैरह जिन तीर्थों की यात्रा की थी और जिन का वर्णन इस विज्ञप्तित्रिवेणि में है उन का भी उल्लेख इस स्तवन में किया हुआ है। लिखा है १ यह टीका सं. १४९५ में बनाई गई थी। इस की प्रथम प्रति सोमकुंजर नामके इन के शिष्य-जिस का नाम वि. त्रि. के पृष्ठ १७ और ६३ में दृष्टिगोचर होता है-ने लिखी थी। इस का संशोधन स्वयं जिनभद्रसूरि ने किया था। अंतमें लिखा है कि जैनेन्द्रागमतत्त्ववेदिभिरभिप्रेतार्थकल्पद्रुभिः सद्भिः श्रीजिनभद्रसूरिभिरियं वृत्तिविशुद्धीकृता । तद्वत्तार्किकचक्रिभिः श्रुतपथाध्वन्यैर्महावादिभिः प्रामाण्यं गमिता विचार्य च तपोरत्नैः पुरावाचकैः ॥ सोमकुञ्जरनामास्ति विनेयो विनयी हि नः। न्यधित प्रथमादर्श ग्रन्थमनमनाकुलः ॥ विक्रमतः पञ्चनवत्यधिकचतुर्दशशतेषु वर्षेषु । प्रथितेयं श्लोकैरिह पञ्चदशशतानि सार्दानि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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