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ते चोपाध्यायपदप्रदानतो मे परमपूज्याः ॥ ५ ॥ श्रीजयसागरगणिना तेन मया वाचकेन शुचि वाच्यम् । पृथ्वीचन्द्रचरित्रं विरचितमुचितप्रविस्तारम् ॥ ६ ॥ प्रल्हादनपुरनगरे त्रिबिन्दुतिथिवत्सरे कृतो ग्रन्थः । माल्हाश्रावकवसतौ समाधिसन्तोषयोगेन ॥ ७ ॥ अभ्यर्थनया सत्यरुचेर्बभूव साहाय्यकारी गणिरत्नचन्द्रः । उपक्रमोऽयं फलवान् ममाभूत् क्रिया हि सहायकसव्यपेक्षया ॥८॥
[जिस समय यह ग्रंथ लिखा गया उस समय जयसागरजी जिनभद्रसूरि के पक्ष में थे और जिनवर्द्धनसूरि का समुदाय इन्हें प्रतिपक्षी गिनता था तो भी पूर्व-उपकार (विद्यागुरु होने से ) के कारण इन्हों ने जिनवर्द्धनसूरि के गुणों की अच्छी प्रशंसा की है । इस से इन की गुणज्ञता का अच्छा परिचय मिलता है । ]
उपाध्याय-पद इन्हें कब दिया गया इस का कहीं उल्लेख नहीं मिला परंतु अनुमान होता है, कि सागरचंद्राचार्य ने जिनवर्द्धनसूरि के स्थान पर जब सं० १४७५ में जिनभद्रसूरि को स्थापन किया था तभी इन को भी अपने पक्ष में लेने के लिये-उपाध्यायपद प्रदान किया गया होगा। क्यों कि सं० १४७८ में इन्हों ने जो 'पर्वरत्ना. वली" कथा लिखी है उस में ये अपने को उपाध्याय-विशेषणविशिष्ट लिखते हैं।
श्रीखरतरगच्छेशाः श्रीजिनराजसूरयः । तच्छिष्यः श्रीउपाध्यायः किञ्चिज्ज्ञो जयसागरः॥ अपि च दिग्गजसप्तचतुःसितद्युतिमिते परितः परिवत्सरे । नगरपत्तनमेत्य समर्थिता जयतु धर्मकथा जिनशासने ॥ उपर्युक्त · पृथ्वीचंद्र चरित्र' और 'पर्वरत्नावली' के सिवा
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