________________
जयसागर उपाध्याय ।
' न के जन्म-स्थान और माता पितादि के विषय ३ में कुछ भी वृत्तांत उपलब्ध नहीं हुआ। होने की
विशेष संभावना भी नहीं है । विशेष कर इन
बातों का उल्लेख पट्टावलि में हुआ करता है परंतु उस में भी केवल गच्छपति आचार्य ही के संबंध की बातें लिखी जाने की प्रथा होने से इतर ऐसी व्यक्तियों का विशेष हाल नहीं मिल सकता । ऐसा व्यक्तियों के गुर्वादि और समयादि का जो कुछ थोडा बहुत पता लगता है वह केवल उन के निज के अथवा शि. ध्यादि के बनाये हुए ग्रंथों वगैरह की प्रशस्तियों का प्रताप है। यदि इस प्रकार की प्रशस्तिये न मिले तो फिर उन के विषय चाहे जितने इधर उधर गोते लगाये फिरो, कुछ भी हाथ नहीं आता।
उपाध्याय जयसागरजी के किये हुए ग्रंथों के अवलोकन से ज्ञात होता है, कि इन के दीक्षा-गुरु जिनराजसूरि थे (जिन का जिक्र ४७ वे पृष्ठ पर किया गया है)। अर्थात् जिनभद्रसूरि के ये गुरु-बन्धु थे । इन्हें विद्याभ्याल जिनवर्द्धनसरि ने कराया था। वे इन के विद्यागुरु थे । उपाध्याय-पद जिनभद्रसार की ओर से इन्हें दिया गया था । संवत् १५.३ में, प्रल्हादनपुर (पालनपुर-उत्तरगुजरात) में, माल्हा श्रावक की वसति ( उपाश्रय ) में रह कर, अपने शिष्य सत्यरुचि की प्रार्थना से इन्हों ने “पृथ्वीचंद्रचरित्र" नाम का एक कथा-ग्रंथ लिखा है जिस की प्रशस्ति में इन बातों का संक्षेप में जिक्र किया है । यथा
तत्पदृशाडुलवृक्षः स्थलकौस्तुभसन्निभः । श्रीजिनराजसूरीन्द्रो योऽभूद्दीक्षागुरुर्मम ॥ ३ ॥ तदनु च श्रीजिनवर्द्धनसूरिः श्रीमानुदैदुदारमनाः । लक्षणसाहित्यादिग्रन्थेषु गुरुर्ममप्रथितः ॥ ४ ॥ श्रीजिनभद्रमुनीन्द्राः खरतरगणगगनपूर्णचन्द्रमसः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org